Book Title: Dashvaikalaik Sutra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 9
________________ रसं रस को आवियइ थोड़ा पीता है य परन्तु पुष्पं फूल को किलामेइ पीड़ा न नहीं देता य औरसो वह भँवरा अप्पयं अपनी आत्मा को पीणेइ तृप्त कर लेता है। एमेए इसी प्रकार मुत्ता बाह्याभ्यन्तर' परिग्रह रहित जे जो लोए ढाई द्वीप-समुद्र प्रमाण मनुष्य क्षेत्र में विचरने वाले समणा महान् तपस्वी साहुणो साधु संति हैं, वे पुप्फेसु फूलों में विहंगमा भँवरा के व समान दाणभत्तेसणे गृहस्थों से दिये हुए आहार आदि की गवेषणा में रया खुश हैं। -जिस प्रकार भँवरा वृक्षों के फूलों का थोड़ा-थोड़ा रस पीकर अपनी आत्मा को तृप्त कर लेता है. लेकिन् फूलों को किसी तरह की तकलीफ नहीं देता। इसी प्रकार ढाई द्वीप समुद्र प्रमाण मनुष्य-क्षेत्र में विचरने वाले परिग्रह त्यागी-तपस्वी-साधु, लोग गृहस्थों के घरों से थोड़ा- थोड़ा आहार आदि ग्रहण कर अपनी आत्मा को तृप्त कर लेते हैं, परन्तु किसी को तकलीफ नहीं पहुंचाते। उक्त दृष्टान्त में विशेष यह है कि-भँवरा तो बिना दिये हुए ही सचित्त फूलों के रस को पीकर तृप्त होता है परन्तु साधु तो गृहस्थों के दिये हुए, अचित्त और निर्दोष आहार आदि को लेकर अपनी आत्मा को तृप्त करते हैं अत: भौरे से भी अधिक साधुओं में इतनी विशेषता है। यहाँ वृक्ष-पुष्प के समान गृहस्थों को और भौरे के समान साधुओं को समझना चाहिये। वयं च वित्तिं लब्धामो, न य कोइ उवहम्मइ। अहागडेसु रीयंते, पुप्फेसु भमरा जहा॥४॥ शब्दार्थ-वयंच हम वित्तिं ऐसे आहार आदि लन्मामो ग्रहण करेंगे, जिनमें कोई कोई भी जीव नय नहीं उवहम्मइ मारा जाय, जहा जैसे पुप्फेसु फूलों में भमरा भँवरों का गमन होता है, वैसे ही अहागडेसु गृहस्थों ने खुद के निमित्त बनाये हुए आहार आदि को ग्रहण करने में भी रीयंते साधु ईर्या समिति पूर्वक गमन करते हैं। ___–'हम ऐसे आहार वगैरह ग्रहण करेंगे जिनमें स्थावर या त्रस जीवों में से किसी तरह के जीवों की हिंसा न हो ऐसी प्रतिज्ञा करके साधुओं को भ्रमर के समान, गृहस्थों ने जो खुद के निमित्त बनाया हुआ है उस आहार आदि में से थोड़ा थोड़ा ग्रहण करना चाहिये। जो आहार आदि साधु के निमित्त बनाये या लाये गये हैं. वे साधुओं के लेने लायक नहीं, किन्तु छोड़ देने लायक हैं। १ धन, धान्य, क्षेत्र, वास्तु, रूप्य, सुवर्ण कूप्य, द्विपद, चतुष्पद; यह नौ प्रकार का बाह्य और मिथ्यात्व, पुंवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ; यह चौदह प्रकार का अभ्यंतर परिग्रह है। २ जम्बुद्वीप, लवणसमुद्र धातकी खंड कालोदधि समुद्र और पुष्करद्वीप का आधा भाग इस ढ़ाई द्वीप समुद्र प्रमाण क्षेत्र को 'मनुष्य क्षेत्र' कहते है। श्री दशवकालिक सूत्रम् /६

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