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न्यायदीपिका : एक समीक्षा
समीक्षक-पं० नरेन्द्रकुमार शास्त्री, न्यायतीर्थ, सोलापुर आधुनिक विद्वद्गणमें विद्वद्रत्न डॉ० ५० दरबारीलालजी कोठिया न्यायाचार्य वाराणसीका प्रमुख स्थान है। जैन साहित्यमें विशेषतः दर्शन व न्याय साहित्यमें आपका महत्त्वपूर्ण योगदान है। आपके द्वारा अनेक ग्रन्थोंका सम्पादन व अनुवाद हुआ है, जो विद्वद्ग्राह्य एवं स्तुत्य है । उनके ये महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ विभिन्न स्थानोंसे प्रकाशित है।
उनमें एक 'न्यायदीपिका' दामका न्यायविषयक अनुपम एवं अद्वितीय ग्रन्थ है । यह श्रीमद् अभिनव धर्मभूषण यति द्वारा विरचित संक्षिप्त एवं विशद तथा महत्त्वपूर्ण कृति है।
यद्यपि न्याय एवं दर्शन विषयके प्रकाशक अष्टसहस्री, प्रमेयकमलमार्तण्ड, तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक, तत्त्वार्थवात्तिक, न्यायविनिश्चयविवरण, सिद्धिविनिश्चय, न्यायकूमदचन्द्र आदि प्रचुर ग्रन्थ है, जो प्रायः दुरुह, दुरवगाह, गहन, जटिल और तीक्ष्णबुद्धियों द्वारा ही गम्य है, उनमें बालबुद्धियों (अल्पज्ञजनों) का प्रवेश होना अत्यन्त कठिन है । तथापि उनमें उनका भी प्रवेश हो, इस परोपकार भावनासे प्रेरित होकर अभिनव धर्मभूषणने इस लघुकाय, किन्तु विशद कृति, न्यायदीपिकाकी रचना की, जिसकी सूचना उन्होंने स्वयं आदिश्लोक (मंगलाचरणपद्य ) में """बालप्रबुद्धये। विरच्यते मितस्पष्टसन्दर्भन्यायदीपिका ॥' शब्दों द्वारा की है।
इसमें सन्देह नहीं कि न्यायके प्राथमिक जिज्ञासुओंके लिए अभिनव धर्मभूषणकी यह कृति बहुत उपयोगी है । वास्तवमें आचार्य गृद्धपिच्छके द्वारा रचित महाशास्त्र 'तत्त्वार्थसूत्र' के 'प्रमाणनयैरधिगमः' [१-६] इस मूल सूत्र में आये प्रमाण और नयका विवेचन करनेके लिए ही उन्होंने न्यायदीपिकाको रचा। यों न्यायके सभी ग्रन्थोंका मूलाधार यही सत्र है-उसीके आधारपर प्रायः सभी जैन न्यायग्रन्थ रचे गये हैं। अभिनव धर्मभूषणने भी अपनी न्यायदीपिका उसी सूत्रके आधारसे या उसीकी व्याख्याके लिए रची है। यह उन्होंने ग्रन्थकी भूमिकामें स्वयं कहा है। अतः इसमें मुख्यतासे प्रमाण और नयका अति संक्षेपमें तथा अत्यन्त सरल भाषामें यक्तिपूर्ण विचार किया गया है। अपने कथनके समर्थन में उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि 'तव्यतिरेकेण जीवाद्यधिगमे प्रकारान्तरासम्भवात्' अर्थात् प्रमाण और नयके विना जीवादिक पदार्थों का ज्ञान करनेके लिए अन्य कोई प्रकार (उपाय) नहीं है । ग्रन्थका तीन प्रकाशोंमें विभाजन
यह तीन प्रकाशोंमें विभाजित है। यतः ग्रन्थका नाम 'न्यायदीपिका' है, अतः उसके विभागोंपरिच्छेदों-अध्यायोंका नाम भी 'प्रकाश' रखना स्वाभाविक है। दीप या दीपिकाका प्रकाश ही तो होता है । अतः उसके विभागोंको परिच्छेद या अध्याय न कह कर 'प्रकाश' कहना उचित और सुन्दर है ।
_वे तीन हैं-१. प्रमाणसामान्य-प्रकाश, २. प्रत्यक्ष-प्रकाश और ३. परोक्ष-प्रकाश ।
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