Book Title: Darbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Darbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 502
________________ किये और घोर परीषह सहे, क्या उनका नाश होने दूं? नश्वर शरीर नष्ट होता है तो हो, जीवनभर पालितपोषित आत्मगुणोंको नाश नहीं होने दूंगा। अतः शरीरसे मोह छोड़कर आत्माकी रक्षा करूँगा; क्योंकि शरीररक्षाको अपेक्षा आत्मरक्षा अधिक लाभदायक और श्रेयान् है । मैं सिद्धसम हैं और इसलिये निर्विकल्पक समाधि द्वारा केवलज्ञान प्राप्त कर शुद्ध-बुद्ध-सिद्ध बनूंगा।' यह विचारकर आचार्य महाराजने सल्लेखनावत धारण करने का निश्चय किया और भगवान श्री १००८ देशभूषण-कुलभूषणके पावन सिद्धिस्थान श्री कुंथलगिरिपर पहुँचकर अपने उस सुविचारित एवं विवेकपूर्ण निश्चयको क्रियात्मक रूप दिया । अर्थात् १४ अगस्त १९५५ रविवारको बादामका पानी लेकर उसी दिन समस्त प्रकारके आहार-पानीका आमरण त्यागकर दिया। १७ अगस्त तक उनका यह त्याग नियम-सल्लेखनाके रूपमें रहा और उसके बाद उसे उन्होंने यमसल्लेखनाके रूपमें ले लिया। इतना विचार रखा कि बाधा होनेपर यदि कभी आवश्यकता पड़ी तो जल ले लूंगा। समाधिमरण क्यों और उसकी क्या आवश्यकता ? विक्रमकी छठी शताब्दीके विद्वान् आचार्य पूज्यपाद-देवनन्दि सल्लेखनाका महत्त्व और आवश्यकता बतलाते हुए लिखते हैं। 'मरणस्यानिष्टत्वाद्यथा वणिजो विविधपण्यदानादानसञ्चयपरस्य स्वगृहविनाशोऽनिष्टः । तद्विनाशकारणे च कूतश्चिदुपस्थिते यशाशक्ति परिहरति, दुःपरिहारे च पण्यविनाशो यथा न भवति तथा यतते एवं गृहस्थोऽपि व्रतशीलपण्यसञ्चये प्रवर्तमानस्तदाश्रयस्य न पातमभिवाञ्छति तदुपप्लवकारणे चोपस्थिते स्वगुणाविरोधेन परिहरति । दुःपरिहारे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति तथा प्रयतते इति ।-स० सि०, अ० ७ सू० २२ । अर्थात् मरण किसीको इष्ट नहीं है। जिस प्रकार अनेक तरहके जवाहरातोंका लेन-देन करनेवाले व्यापारीको अपने घरका नाश इष्ट नहीं है । यदि कदाचित् उसके नाशका कोई (अग्नि, बाढ़, विप्लव आदि) कारण उपस्थित होजाय तो वह उसके परिहारका यथाशक्ति उपाय करता है। और यदि परिहारका उपाय सम्भव नहीं होता तो घरमें रखे हुए जवाहरातोंकी जैसे बने वैसे रक्षा करनेका यत्न करता है-अपने बहुमूल्य जवाहरातको नष्ट नहीं होने देता है उसीप्रकार जीवनभर व्रत-शीलरूप जवाहरातका सञ्चय करने वाला श्रावक अथवा साधु भी उसके आधारभूत अपने शरीरका नाश नहीं चाहता-उसकी सदा रक्षा करता है । और शरीरके नाशकारणों-रोग, उपसर्ग आदिके उपस्थित होनेपर उनका पूर्ण प्रयत्नसे परिहार करता है तथा असाध्य रोग, अशक्य उपसर्ग आदि के होनेपर जब देखता है कि शरीरका रक्षण अब सम्भव नहीं है तो आत्मगुणोंका नाश न हो वैसा प्रयत्न करता है। अर्थात् शरीररक्षाकी अपेक्षा वह आत्मरक्षाको सर्वोपरि मानता है। इसी बातको पं० आशाधरजी भी कहते हैं कायः स्वस्थोऽनुवर्त्यः स्यात् प्रतिकार्यश्च रोगितः । उपकारं विपर्यस्य॑स्त्याज्यः सद्भिः खलो यथा । देहादिवैकृतैः सम्यक्निमित्तैस्तु सुनिश्चिते । मृत्यावाराधनामग्नमतेर्दूरे न तत्पदम् ।। 'स्वस्थ शरीर, पथ्य आहार और विहार द्वारा पोषण करने योग्य है । और रोगी शरीर योग्य औषधियों द्वारा उपचारके योग्य है। परन्तु योग्य आहार-विहार और औषधोपचार करते हुए भी शरीरपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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