Book Title: Darbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Darbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 556
________________ भी हैं । साहित्य की समस्त विधाओं में रस लेना और दार्शनिक दृष्टिकोणसे लेखन करना कोठियाजी में यह विचित्र संयोग है । आपका अत्यन्त सरल और संयत व्यक्तित्व आपकी वृत्तियोंसे स्पष्ट रूपसे झलकता है । साधुओंका सत्संग और जिनेन्द्र-भक्ति में तल्लीन रहने वाले आप ज्ञानी ही नहीं ध्यानी भी हैं । उन्हें नियमित एक घंटा देव पूजन-भक्ति-स्तुति करते देखा जा सकता है । कोयाजीने जिस परिश्रम और आराधनासे सरस्वतीको प्राप्त किया उसी परिश्रमसे वह आज सरस्वतीकी उपासना कर रहें हैं और सेवाभावी हाथोंसे उसे उलीच कर समाजको दान कर रहे हैं । उनके लेखन और प्रकाशनकी एक श्रृंखला बन गई है । सामाजिक संस्थाओं और आगम- प्रकाशन संस्थाओंके महत्त्वपूर्ण स्तम्भ हैं । कोई भी जैन पत्र-पत्रिकाओंमें उन्हें बराबर पढ़ा जा सकता है । इनकी सेवाओंका जो स्मरण, संकलन और अभिनन्दन किया जा रहा है वह अभिनन्दनीय है । सबके और मेरे प्रिय भैयाको मेरी अनेकानेक मंगल कामनाएँ हैं । निश्चल एवं अध्ययनशील पण्डितजी • श्री रतनचन्द पटोरिया, सेवानिवृत्त सहायक आयुक्त, दुर्ग ( म०प्र०) मेरी छोटी बहिन चमेलीबाईका शुभ-विवाह पंडित दरबारीलालजी से सन् १९३६ में मेरे पैतृक - निवास छिंदवाड़ा ( म०प्र०) में हुआ था । उस समय से मेरा उनसे परिचय व संपर्क हुआ । मेरे पूज्य पिता खुशालचन्दजी अवकाशप्राप्त, जिला आबकारी अधिकारी थे । उन्हें ज्यौतिषका अच्छा ज्ञान था। उन्होंने अपने तथा मेरी माताजीके स्वर्गवासके सम्बन्धमें जो भविष्यवाणियाँ की थीं, वे सब सत्य निकली थीं । मेरे रिश्तेदार तथा पिताजीके मित्र इत्यादिने पूछा कि "आपने अपनी पुत्री के विवाह के लिये एक पण्डित लड़का क्यों चुना ? अपने समान शासकीय सेवामें उच्चपदपर कार्यरत लड़का क्यों नहीं ढूँढ़ा ?" पिताजीका उत्तर था कि "इस लड़केका भविष्य बहुत उज्ज्वल है तथा यह बड़ा विद्वान् बनेगा और ख्याति प्राप्त करेगा । " दिन-प्रतिदिन पण्डितजीकी प्रतिभा निखरती गयी तथा उनका सतत अध्ययन बढ़ता गया । जो भी व्यक्ति उनके सम्पर्क में आया वह उनकी निष्कपटता, निर्मल हृदयता तथा सरलतासे प्रभावित हुआ । दक्षिण भारतकी यात्रापर मैं अपने परिवार के सदस्योंके साथ अगस्त १९८० में मूडबिद्री पहुँचा । वहाँ पण्डिताचार्यवर्य भट्टारक चारुकीर्तिजी महाराजसे मिलने हम शामको पहुँचे । बातचीत के समय भट्टारक चारुकीर्ति महाराजने कहा कि वे बुन्देलखण्ड के दो व्यक्तियोंसे विशेष प्रभावित हुए हैं तथा उनकी निर्मल हृदयता, सरलता व निस्पृह जीवनसे उन्होंने बहुत सीखा है, वे हैं पहले व्यक्ति प्रातःस्मरणीय संत पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी तथा दूसरे व्यक्ति विद्वानोंमें पंडित दरबारीलालजी । महान् पंडितजी अपनी आयुके ७२ वें वर्ष में प्रवेश कर गये हैं । वे शतायु होवें तथा जैनधर्म व समाजकी तन, मन व धनसे स्वस्थ रहते हुए सेवा करते रहें, यही हृदयसे कामना है । हम सब पटोरिया- परिवार के सदस्यगण उन्हे शतशः प्रणाम करते हैं । Jain Education International - ४९९ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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