Book Title: Darbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Darbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 557
________________ न्यायके असाधारण ज्ञाता •श्री सुभाष जैन, कटनी (म० प्र०) डॉ० कोठिया सरल, हित-मित-प्रिय-भाषी, उदार, लगनशील, आडम्बरहीन, अध्ययनप्रिय, अनुशासित तथा विनम्र समाजसेवी विद्वान हैं । वे न्यायके असाधारण ज्ञाता तो है ही, जैन विद्याके अन्य अंगोंके भी प्रभावपूर्ण प्रवक्ता हैं । आपकी ऐतिहासिक गवेषणाएँ प्रमाणशास्त्र तथा जैनदर्शनकी अमूल्य निधि हैं । निःसन्देह आपका पाण्डित्य-दर्शन व अगाध ज्ञानका प्रस्फुटन उनके द्वारा सम्पादित, रचित मूल्यवान् ग्रन्थोंमें स्पष्टतः देखा जा सकता है। एलाचार्य परमपूज्य मुनि विद्यानन्दजी महाराज तथा परमपूज्य आचार्य विद्यासागरजी महाराजने भी आपकी धार्मिक अभिरुचियों एवं सेवाओंको सराहा है । समाज, धर्म, संस्कृति, दर्शनके ऐसे अहनिश चिन्तक, प्रभावी विद्वान डॉ० कोठियाके दोघजीवी होनेकी कामना करता हूँ। मधुर व्यवहारके धनी श्री मोतीलाल, बड़कूल, जबलपुर श्रद्धय पंडित डॉ० कोठिया जैनदर्शनके महान विद्वान, सरलस्वभावी एवं मधुर व्यवहारके धनी महापुरुष हैं । अनेक अवसर पर उनके सम्पर्क में आनेपर महान सन्त वर्णीजीके प्रति उनकी अपार श्रद्धा एवं वर्णीजीकी वाणीका जैन जगतमें प्रसार करनेकी उनकी धनका हृदयपर अमिट प्रभाव अनुभव हुआ । इस पुनीत कार्यमें श्रीकोठियाजीने तन, मन, धनसे जो त्यागका प्रदर्शन क्रियात्मकरूपसे किया है वह देशके समस्त जैन विद्वानोंके लिये आदर्श है। मेरा विश्वास है कि यदि १००-२०० जैन विद्वान श्रीकोठियाजी जैसा आचारण एवं त्याग करें तो जैन दर्शनका प्राचीन एवं अर्वाचीन साहित्य जगतके समक्ष शीघ्र प्रगट किया जा सकता है। मैं श्री कोठियाजीको इस विषयमें एक महान सन्त मानता हैं और उनके चरणोंमें सादर अभिवादन भेंटकर गौरवका अनुभव करता हूँ। . मेरे फूफाजी .श्रीमती राजकुमारी रांघेलीय, कटनी गौरवर्ण, औसद कद, श्वेत खादीके वस्त्रोंसे मंडित, गरिमामय है उनका सौम्य व्यक्तित्व । शैशवसे ही उनकी वात्सल्यमयी पुचकार (दुलार) के साथ उनका यह रूप सँजोया है, मनने ! स्मृतिके वातायनसे एक दृश्य याद आता है। मैं छोटी थी । हाथका पिसा आटा खानेवाले फूफाजी पाहुने थे । मेरी माँ पाककलामें निपुण हैं, पाटेपर विराजते ही फूफाजी कहते हैं-'पाहुनीजी जरा-सी देर में आपने कितना सारा बना लिया, बड़ी सुघड़ हैं आप।' मैं चकित रह जाती हूँ । फूफाजीके भोजनके बाद मैं माँसे पूछती हूँ-माँ पाहुने तो फूफाजी हैं वे आपसे पाहुनी क्यों कहते हैं ।' माँको हँसी आ गई । वे बोलीं-'मैं तुम्हारी फुआकी भावी हूँ, इसलिए वे मुझे पाहुनी कहते हैं ।' पर मेरा समाधान नहीं हुआ। आज जब यह संस्मरण लिखने बैठी तो अबूझ पहेली-सी यह शंका फिर कौंध आई । अबकी बार फूफाजी मिलेंगे, तो जरूर पूलूंगी। सन् ५० के लगभगकी बात है, मेरे पिताजी सपरिवार महावीरजी, जयपुर, पद्मपुराकी यात्रा करते हुए दिल्ली फूफाजीके पास रुके । मैं भी कोई १०-१२ वर्षकी बालिका रही । फूफाजीने खूब दिल्ली घुमाई । चुन-चुनकर सब्जियां, फल, मिठाई लाते, उपहार स्वरूप वस्त्र भी हमें दिलवाये । उनका यह अतिथि-सत्कार - ५०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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