Book Title: Darbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Darbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 453
________________ कौन-सा कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र है ? आचार्य यतिवृषभने अपनी 'तिलोयपण्णत्ती' (४-१४७९) में 'कुण्डलगिरि' से श्री अन्तिम केवली श्रीधरके सिद्ध (मुक्त) होनेका उल्लेख किया है । जैसा कि निम्न गाथा-वाक्यसे प्रकट है 'कुंडलगिरिम्म चरिमो केवलणाणीसु सिरिधरो सिद्धो।' 'केवलज्ञानियोंमें अन्तिम केवलज्ञानी श्रीधरने कुण्डलगिरिमें सिद्ध पद प्राप्त किया ।' इसके आधारसे कुछ लोगोंका विचार है कि आचार्य यतिवृषभने यहाँ (उक्त गाथामें) उसी ‘कुण्डलगिरि' का उल्लेख किया है, जो मध्यप्रदेशके दमोह जिलान्तर्गत पटेरा ग्रामके पास स्थित कुण्डलगिरि है, जिसे आजकल कुण्डलपुर कहते हैं और जो अतिशयक्षेत्र माना जाता है । अतएव इस प्रमाणोल्लेखके आधारपर अब उसे सिद्धक्षेत्र मानना चाहिए और यह घोषित कर देना चाहिए। गत वर्ष सन १९४५ में जब अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्का अधिबेशन कटनी (म० प्र०) में हुआ, तो इसके निर्णयके लिए तीन विद्वानोंकी एक उपसमिति बनाई गई । उसमें एक नाम मेरा भी था। अतएव यह अनसन्धेय था कि तिलोयपण्णत्तीके उपर्यक्त उल्लेखमें कौन-से कुण्डलगिरिसे अन्तिम केवली श्रीधरके निर्वाणका प्रतिपादन किया गया है ? आज हम उसीपर विचार करेंगे। प्राप्त जैन साहित्यमें 'कुण्डलगिरि' के सिद्धक्षेत्रके रूपमें दो उल्लेख मिलते हैं। एक तो उपर्युक्त 'तिलोयपण्णत्ती' का है और दूसरा उल्लेख पूज्यपाद (देवनन्दि) की निर्वाण-भक्तिका है, जो इस प्रकार है । द्रोणीमति प्रवरकुंडल-मेढ़के च वैभारपर्वततले वरसिद्धकूटे । ऋष्यद्रिके च विपुलाद्रि-बलाहके च विन्ध्ये च पौदनपुरे वृषदीपके च ॥ -दशभक्त्या० पृ० २३३ । इस उल्लेखमें 'कुण्डल' पदका स्पष्ट प्रयोग है और आगे-पीछेके सभी अद्रि (गिरि) हैं और इसलिए 'कुंडल' पदसे 'कुण्डलगिरि स्पष्टतया पूज्यपादको अभीष्ट है । कुण्डलगिरिके इस प्रकार ये दो उल्लेख है। इन दोके अतिरिक्त अभी तक हमें अन्य उल्लेख नहीं मिला। यदि पूज्यपाद यतिवृषभके पूर्ववर्ती हैं तो कृण्डलगिरिका उनका उल्लेख उनसे प्राचीन समझना चाहिए । अब देखना है कि जिस कुण्डलगिरिका उल्लेख पूज्यपादने किया है वह कौन-सा है और कहाँ है ? क्या उसके दूसरे भी नाम है ? तिलोयपण्णत्तीमें उन पाँच पर्वतॊके नाम और अवस्थान दिये हैं, जिन्हें 'पंच शैल' या 'पंच पहाड़ी' कहा जाता है और जो राजगिर (राज गृही) के पास है । वे इस प्रकार हैं चउरस्सो पुवाए रिसिसेलो दाहिणाए वेभारो। णईरिदिदिसाए विउलो दोण्णि तिकोणट्ठिदायारा ॥ चावसरिच्छो छिण्णो वरुणाणिलसोमदिसविभागेसु । ईसाणाए पंडू वण्णा सव्वे कुसग्गपरियरणा ॥१-६६, ६७॥ -३९८ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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