Book Title: Darbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Darbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 448
________________ श्रतके आधारपर रचा गया है और इसलिए वह दिगम्बर परम्पराका ग्रन्थ है और उसके कर्ता दिगम्बराचार्य हैं। उत्सत्र और उत्सूत्र लेखक श्वेताम्बर परम्पराका अनुसारी नहीं हो सकता, यह समीक्षकके लिए अवश्य चिन्त्य है। अब रही तत्त्वार्थसूत्रमें १६ की संख्याका निर्देश न होनेकी बात । सो प्रथम तो वह कोई महत्त्व नहीं रखती, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्रमें जिसके भी भेद प्रतिपादित है, उसकी संख्याका कहीं भी निर्देश नहीं है । चाहे तपोंके भेद हों, चाहे परीषहों आदिके भेद हों। सूत्रकारकी यह पद्धति है, जिसे सर्वत्र अपनाया गया है । अतः तत्त्वार्थसूत्रकारको तीर्थकर-प्रकृतिके बन्धकारणोंको गिनानेके बाद संख्यावाची १६ (सोलह)के पदका निर्देश अनावश्यक है। तत्संख्यक कारणोंको गिना देनेसे ही वह संख्या सुतरां फलित हो जाती है । १६ को संख्या न देनेका यह अर्थ निकालना सर्वथा गलत है कि उसके न देनेसे तत्त्वार्थसूत्रकारको २० कारण अभिप्रेत हैं और उन्होंने सिद्धभक्ति आदि उन चार बन्धकारणोंका संग्रह किया है, जिन्हें आवश्यकनियुक्ति और ज्ञातधर्मकथामें २० कारणों (बोलों) के अन्तर्गत बतलाया गया है । सम्पादकजीका उससे ऐसा अर्थ निकालना नितान्त भ्रम है । उन्हें तत्त्वार्थसूत्र की शैलीका सूक्ष्म अध्ययन करना चाहिए । दूसरी बात यह है कि तीर्थकर प्रकृतिके १६ बन्धकारणोंका प्ररूपक सूत्र (त० सू०६-२४) जिस दिगम्बर श्रुत षट्खण्डागमके आधारसे रचा गया है उसमें स्पष्टतया 'दंसणविसुज्झदाए-इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहिं जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधति ।'-(३-४१, पुस्तक ८) इस सूत्रमें' तथा उसके पूर्ववर्ती सूत्र२ (३-४०)में भी १६ की संख्याका निर्देश है। अतः षट्खण्डागमके इन दो सूत्रों के आधारसे रचे तत्त्वार्थसूत्रके उल्लिखित (६-२४) सूत्र में १६ की संख्याका निर्देश अनावश्यक है। उसकी अनुवृत्ति वहाँसे सुतरां हो जाती है। सिद्धभक्ति आदि अधिक ४ बातें दिगम्बर परम्परामें स्वीकृत हैं या नहीं, यह अलग प्रश्न है। किंतु यह सत्य है कि वे तीर्थंकर प्रकृतिकी अलग बन्धकारण नहीं मानी गयीं। सिद्धभक्ति कर्मध्वंसका कारण है तब वह कर्मबन्धका कारण कैसे हो सकती है। इसीसे उसे तीर्थकर प्रकृतिके बन्धकारणोंमें सम्मिलित नहीं किया । अन्य तीन बातोंमें स्थविरभक्ति और तपस्विवात्सल्यका आचार्यभक्ति एवं साधु-समाधिमें तथा अपूर्वज्ञानग्रहणका अभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोगमें समावेश कर लेनेसे उन्हें पृथक ग्रहण करनेकी आवश्यकता नहीं है। समीक्षकको गम्भीरता और सूक्ष्म अनुसन्धानके साथ ही समीक्षा करनी चाहिए, ताकि नीर-क्षीर न्यायका अनुसरण किया जा सके और एक पक्षमें प्रवाहित होनेसे बचा जा सके । तत्त्वार्थसूत्रमें स्त्रीपरीषह और दंश-मशकपरीषह हमने अपने उक्त निबन्धमें दिगम्बरत्वकी समर्थक एक बात यह भी कही है कि तत्त्वार्थसूत्र में स्त्रीपरीषह और दंशमशक इन दो परीषहोंका प्रतिपादन है, जो अचेलश्रुतके अनुकूल है। उसकी सचेल श्रुतके आधारसे रचना माननेपर इन दो परीषहोंकी तरह पुरुषपरोषहका भी उसमें प्रतिपादन होता, क्योंकि सचेल १. दंसणविसुज्झदाए विणयसंपण्णदाए सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए आवासएसु अपरिहीणदाए खणलवबुज्झण दाए लद्धिसंवेगसंपण्णदाए जधाथामे तधा तवे साहूणं पासुअपरिचागदाए साहूणं समाहिसंधारणाए साहणं वज्जावच्च जोगजुत्तदाए अरहंतभत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणदाए अभिक्खणं अभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्म बंधंति ।।४९।। २. तत्य इमेहि सोलसेहि कारणेहि जीवो तित्थकरणामगोदकम्मं बंधति ॥४०॥ इन दोनों सूत्रोंमें १६ की संख्याका स्पष्ट निर्देश है । -३९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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