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आठ जिनमन्दिर बने हुए हैं। गोम्मटेश्वरकी संसारप्रसिद्ध विशाल मूर्ति इसीपर उत्कीर्ण है, जिसे चामुण्डरायने विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दी में निर्मित कराया था । अतएव इस प्रसिद्ध मूर्तिके कारण पर्वतपर और भी कितने ही जिनमन्दिर बनवाये गये होंगे और इसलिए उनका भी प्रस्तुत रचनामें उल्लेख सम्भव है । यह पहाड़ी अनेक साधु-महात्माओं की तपःभूमि रही है । अतः विन्ध्यगिरि सिद्धतीर्थ तथा अतिशयतीर्थ दोनों है ।
अतिशयतीर्थ
मदनकीर्तिद्वारा उल्लिखित १८ अतिशयतीर्थों अथवा सातिशय जिनबिम्बों का भी यहाँ कुछ परिचय दिया जाता है ।
श्रीपुर - पार्श्वनाथ
जैन साहित्य में श्रीपुरके श्रीपार्श्वनाथका बड़ा माहात्म्य और अतिशय बतलाया गया है और उस स्थानको एक पवित्र तथा प्रसिद्ध अतिशयतीर्थंके रूपमें उल्लेखित किया गया है। निर्वाणकाण्ड में जिन अतिशय-तीर्थो का उल्लेख है उनमें 'श्रीपुर' का भी निर्देश है और वहाँके पार्श्वनाथकी वन्दना की गई है । ' मुनि उदय कीर्तिने भी अपनी अपभ्रंशनिर्वाणभक्ति में श्रीपुरके पार्श्वनाथका अतिशय प्रदर्शित करते हुए उनकी वन्दना की है । मदनकीर्तिसे कोई सौ वर्ष बाद होनेवाले श्वेताम्बर विद्वान् जिनप्रभसूरिने भी अपने 'विविध तीर्थकल्प' में एक 'श्रीपुर-अन्तरिक्ष पार्श्वनाथकल्प' दिया है और उसमें इस अतिशयतीर्थका वर्णन करते हुए उसके सम्बन्धमें एक कथाको भी निबद्ध किया है । 3 कथाका सारांश यह है कि 'लङ्काधीश दशग्रीवने माली सुमाली नामके अपने दो सेवकों को कहीं भेजा । वे विमान में बैठे हुए आकाशमार्गसे जा रहे थे कि जाते-जाते भोजनका समय हो गया । सुमालीको ध्यान आया कि जिनेन्द्र प्रतिमाको घर भूल आये और बिना देवपूजाके भोजन नहीं कर सकते। उन्होंने विद्याबलसे पवित्र बालूद्वारा भाविजिन श्रीपार्श्वनाथको नवीन प्रतिमा बनाई । दोनोंने उसकी पूजा की और फिर भोजन किया । पश्चात् उस प्रतिमाको निकटवर्ती तालाब में विराजमानकर आकाशमार्ग से चले गये । वह प्रतिमा शासनदेवताके प्रभावसे तालाब में अखण्डित रूपमें बनी रही । कालान्तर में उस तालाबका पानी कम हो गया और सिर्फ उसी गड्डे में रह गया जहाँ वह प्रतिमा स्थित थी । किसी समय एक श्रीपाल नामका राजा, जिसे भारी कोढ था, घूमता हुआ वहाँ पहुँचा और पहुँचकर उस पानी से अपना हाथ मुँह धोकर अपनी पिपासा शान्त की। जब वह घर लौटा, तो उसकी रानीने उसके हाथ-मुँहको कोढरहित देखकर पुनः उसी पानीसे स्नान करनेके लिए राजासे कहा । राजाने वैसा किया और उसका सर्व कोढ़ दूर हो गया । रानीको देवताद्वारा स्वप्नमें इसका कारण मालूम हुआ कि वहाँ पार्श्वजिनकी प्रतिमा विराजमान है और उसीके प्रभावसे यह सब हुआ है । फिर वह प्रतिमा अन्तरिक्षमें स्थित हो गई । राजाने वहाँ अपने नामाङ्कित श्रीपुरनगरको बसाया। अनेक महोत्सवोंके साथ उस प्रतिमाकी वहाँ प्रतिष्ठा की गई। तीनों काल उसकी पूजा हुई । आज भी वह प्रतिमा उसी तरह अन्तरिक्ष में स्थित है । पहले वह प्रतिमा इतने अधर थी कि उसके नीचेसे शिरपर घड़ा रक्खे हुए स्त्री निकल जाती थी, परन्तु कालवश अथवा भूमिरचनावश या मिथ्यात्वादिसे दूषित कालके प्रभावसे अब वह प्रतिमा इतने नीचे १. यथा - ' पास सिरपुरि वंदमि ' । 'निर्वाणका० । २. यथा -- ' अरु वंदउं सिरपुरि पासनाहु,
जो अंतरिक्खि छइ णाणलाहु ।
३. सिंधी ग्रन्थमालासे प्रकाशित 'विविधतीर्थकल्प' पृ० १०२ ।
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