Book Title: Charitra Shuddhi Vrat
Author(s): Dharmchand Shastri
Publisher: Jain Mahila Samaj Delhi

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Page 10
________________ आद्य व्यक्तध्या जैनों में चारित्र धारण करने का अत्यधिक महत्व है। दर्शन ज्ञान की आवश्यकता होने पर भी बे अपने आप में तब तक पूज्य नहीं माने जाले जब तक व्रत ला चारित्र का उनके साथ सहयोग न हो । जहां तक संसारोच्छेद का प्रश्न है वह तो चारित्र के बिना हो ही नहीं सकत । इसीलिए भगवान समन्तभद्र ने रत्नकरणड श्रावकचार में लिखा है। मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः | रागद्वेषनिवृत्यै चरण प्रतिपद्यते साधुः ।। अर्थात-- दर्शन मोह का अभाव हो जाने पर सम्यगदर्शन होता है, और सम्यग्दर्शन के लाभ से सम्यग्ज्ञान प्राप्त होता है । इसके बाद रागद्वेष की निवृत्ति के लिए साधु चारित्र धारण करता है। इस कथन से स्पष्ट है कि दर्शन ज्ञान हो जाने पर भी रागद्वंष तय तक दूर नहीं होते जब तक चारित्र धारण न किया जाय । इस आत्मा का मुख्य ध्येय रागादि से निवृत्ति प्राप्त करना है। यह रागादि की पूर्ण निवृत्ति ही मुक्ति है जो चारित्राश्रित है अतः मुमुक्षु को चारित्र धारण करना उतना ही आवश्यक है। जितना जीवन के इच्छुक को आहार करना। इस घोर कलिकाल में इस चारित्र की ही उपेक्षा की जा रही है और इस कलिकाल की भीषणता तब और बढ़ जाती है जब चारित्र को संसार पतन का कारण बताया जाता है। जब लोग चारित्र में स्वतः उपेक्षित हैं और सब प्रकार की भक्ष्याभक्ष्य प्रवृत्ति से परहेज नहीं करना चाहतं तब व्रतादि रूप चारित्र को अधर्म कहना, संसार का कारण बतलाना 'अन्ध असूझन की अखियन में झोंकत

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