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का गुणवान राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम शिवसुन्दरी था। एक दिन राजा वनक्रीड़ा करने के हेतु वन में गया । उसे मार्ग में गुणंजय और वरंजय नाम के दो चारण ऋद्धि धारी मुनिश्वर दृष्टिगोचर हुए। वे दिन-रात आत्म-चिन्तन में रहन वाले तथा मध्यजीयों का उद्धार करन वाले थे। राजा ने मुनि युगल को देखकर भक्ति सहित प्रणाम किया और विनम्र भाव से प्रश्न किया - हे भगवन् ! मुझे कृपा करके ऐसा व्रत दीजिये जिसके प्रसाद से मैं तीर्थकर पद प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त कर सकू। यह सुनकर करुणासागर मुनिराज बोले. हे मुमुक्षु ! चारित्र शुद्धि (बारहसो चौंतीस) व्रत करने से तीर्थकर पद की प्राप्ति होती है जिससे मुक्ति को प्राप्त करना नियम से है ही। यह व्रत भाद्रपद मास की शुक्ला प्रतिपदा से प्रारंभ किया जाता है। एक महीने में दस उपवास किये जाये तो इस प्रकार दस वर्ष ३ || माह में कुल १२३४ उपवास पूर्ण होते हैं और यदि इन उपवासों को एकांतरे से किया जावे तो ६ वर्ष १० महीने और - दिन में पूर्ण होते हैं। कदाचित् ऐसी शक्ति न हो तो यह उपवास बीच-बीच में किये जा सकते हैं और पचीस वर्ष में भी समाप्त कर सकते हैं किन्तु उपवासों की संख्या १२३४ हो जानी चाहिए।
सब ही व्रतों की शोभा उद्यापन से होती है अतः इसके उद्यापन को भी । इस प्रकार करना चाहिए :
जिन मन्दिर में झारी, थाली, कलश इत्यादि उपकरण चढ़ावें और ६४ रकाबियां साधर्मियों को बांटे तथा १२३४ लडू भी प्रावकों को बांटे, भगवान जिनेन्द्र का भक्ति भाव से पंचामृताभिषेक पूर्वक चारित्र शुद्धि मण्डल विधान की पूजा करे एवं दानादि दे कर अपना जन्म सफल करें। ___इस प्रकार गुरुओं के श्रीमुख से व्रत का विधान सुनकर दोनों दम्पत्ति अत्यन्त प्रसन्न हुए और दोनों ने ही श्री गुरु के पादमूल से व्रत ग्रहण किये। व्रतों को विधि से पूर्ण कर उद्यापन किया और अन्त समय सन्यास पूर्वक समाधिमरण कर राजा अच्युत स्वर्ग में इंद्र और सनी उसकी इन्द्राणी हुई। वहां सोलहवें स्वर्ग में बाईस सागर की उत्कृष्ट आयु का उपमोग कर विदेह
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