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क्षेत्र में विजयापुरी नाम की सुन्दर नगरी के धर्म बुद्धि राजा धनंजय के सोम श्री नाम की राणी के गर्भ में अवतरित हुए और श्री चन्द्रभानु नाम के तीर्थंकर हुए। इस प्रकार हेमवर्ण राजा के जीव ने १२३४ व्रतों को धारण कर तीर्थंकर पद प्राप्त किया और पांचों कल्याण को प्राप्त होकर नित्य निरंजन पद अर्थात् सिद्ध पद प्राप्त किया ।
व्रत के महान महात्म्य को समझ कर जो भव्य जीव १२३४ व्रत को विधिपूर्वक पालेंगे और अन्त समय में समाधिमरण पूर्वक पर्याय त्यागेंगे वे निश्चय से शाश्वत सुख स्वरूप तीर्थंकर पद प्राप्त कर मुक्ति रूपी लक्ष्मी को वरेंगे।
इस प्रकार श्री गौतम गणधर से बारह सौ चौतीस व्रतों की विधि को श्रद्धापूर्वक सुनकर राजा श्रेणिक ने अंगीकार की।
यह कथा जैसी कथाकोशों में गुरु परम्परा से चलती आ रही है। वैसी ही यहां लिखी गई है। इस कथा का मूल कथानक विक्रम संवत् ११२२ में अनेकों श्रावक श्राविकाओं में सम्पन्न शास्त्र तथा पुराणों के परम श्रद्धालु सदान्तर ग्राम में निवास करने वाले मूलसंघ एवं सरस्वती गच्छान्तर्गत विश्वभूषण भट्टारक गुवाली मुनि के शिष्य जिनेन्द्र भूषण भट्टारक द्वारा रचा
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गया ।
इस व्रत में प्रत्येक उपवास की जाप्य अलग-अलग है। यहाँ सर्व सा रण के लिए छोटा सा जाप्य मंत्र लिख दिया है। इस व्रत के धारक शुद्ध मन होकर १०८ बार जपें।
जाप्य मंत्र
मंत्र :- ॐ ह्रीं असिआउसा चारित्रशुद्धि व्रतेभ्योनमः ।
(इस व्रत की विधि जिनसेनाचार्य विरचित हरिवंश पुराण के ३४वें पर्व में निम्न प्रकार दी है ।)
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