________________
श्री चारित्र शुद्धि (बारह सौ चौतीस )
व्रत कथा
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में मगध नाम का एक सुन्दर देश है। तदन्तर्गत राजगृही नाम की एक सुन्दर नगरी है। उस नगरी का राजा श्रेणिक अपनी पट्टरानी चेलना सहित सुख पूर्वक राज्य करता था। एक दिन विपुलाचल पर्वत पर श्री १०८ महावीर स्वामी का समवसरण आया। भगवान के शुभागमन से छहों ऋलों के फल्न एक गये माती इसे देखकर अत्यंत हर्षित हुआ और उन फलफूलों को लेकर राजा की सेवा में उपस्थित हुआ। राजा ने इस आश्चर्य को देखकर अत्यन्त प्रसन्नता प्रकट की और वनमाली को अपने गले का हार देकर विदा किया।
राजा समझ गया था कि वह भगवान महावीर का अतिशय है, विपुलाचल पर्वत पर भगवान के दर्शनार्थ चलना चाहिए। अतः वह सम्पूर्ण नगर की प्रजा को साथ लेकर अपने परिवार सहित प्रभु की वंदना के हेतु विपुलाचल पर्वत पर गया और समवसरण में पहुंचकर भगवान के दर्शन एवं वंदना कर मनुश्यों के कोठे में जा बैठा ।
अथानन्तर मोक्ष का अभिलाषी राजा श्रेणिक मस्तक नवा कर प्रार्थना करने लगा कि हे प्रभो ! मुझे समझाइये कि षोडश कारण व्रत करने सिवाय तीर्थंकर पद प्राप्त करने का अन्य साधन भी है या नहीं। इस प्रश्न का उत्तर गणधर देव ने किया "हे राजन् ! बारह सौ चौंतीस व्रत करने से उत्तम तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है। यह व्रत किसने किस प्रकार किये और उसका क्या फल मिला यह सब मैं सविस्तार कहता हूं, तुम एक चित्त होकर सुनो ।
हे मगधाधीश ! इस जम्बूद्वीप में अवंती नाम का सुन्दर देश है। इसमें धनधान्य से परिपूर्ण उज्जयनी नाम की सुन्दर नगरी है। इसमें हेमवर्ण नाम
14