Book Title: Bhudhar Bhajan Saurabh Author(s): Tarachand Jain Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan View full book textPage 5
________________ ही पकड़ो/कसो/नियंत्रित करो (८०) । इन्द्रिय-विषयों को छोड़ो (११), सातव्यसनों और आठ मदों का त्याग करो, चित्त में करुणाभाव रखो (६८)। यह दुर्लभ मनुष्य-भव मिला और सत्संगति का संयोग बना है (३७) तो जप-तपतीरथ-जिनपूजा करो, लालच छोड़ो (२९)। मन में मित्र और शत्रु के प्रति समान भाव रखो (४५), निन्दा और प्रशंसा के प्रति समभाव रखो (५०)। पर-स्त्री माता के समान सम्माननीय और पर-धन पाषाण के समान त्याज्य समझो, मनवचन और काय से पर का कार्य करो, दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझो, जगत के छोटे-बड़े सभी जीवों को अपने समान समझो, किसी को न सताओं (६९)। अपने मुख से परनिन्दा मत करो, सबसे मैत्री-भाव रखो, जीवों के प्रति दया पालो, झूठ तजो, चोरी से बचो (७८) और मन से कामनाओं का मैल उतारो (३७) । श्रद्धारूपी गागर में तत्वज़ानरूपी रुचि की केसर घोलो (८१) । जब बाहर का भेष और अन्तर की क्रिया - दोनों पवित्र होंगे तभी पार हो सकोगे (५४)। जो जीव इस प्रकार सदाचार धारण करेंगे वे ही जीवन-मुक्त होंगे (७८)। आध्यात्मिक प्रेरणा - इसलिए तू सब थोथी बातों को छोड़ और भगवान का भजन कर (५६), हे प्राणी ! सीख सुन, तु मंत्रराज णमोकार को मन में धार ले (४२),अपना अन्तर उज्ज्वल कर (५४), सुमति हंसिनी से प्रीत जोड़ (६५), भूधरदासजी कहते हैं कि ऐसे परिणाम ही सार हैं बाकी सब खेल हैं, व्यर्थ हैं (४)। गुरु का महत्त्व - जब शिष्य को। भक्त को यह भान होने लगता है - गुरु मार्गदर्शक हैं, वे भले-बुरे का, हेय-उपादेय का ज्ञान करानेवाले हैं तो उसे गुरु के प्रति सहज ही बहुमान होने लगता है, वह गुरु के महत्त्व को समझने लगता है। वह उनकी स्तुति करता है, उनका गुणानुवाद करता है और विचारता है - मुझे भी ऐसे उपकारी मुनिवर कब मिलेंगे (४५)? जो भ्रमरूपी तीव्र रोग को दूर करने में समर्थ वैद्य हैं (५०), जो इस भव-सागर से स्वयं पार होते हैं और दूसरों को पार कराने में सहायक बनते हैं, साधन बनते हैं (५१), वे गुरु जिनका सान्निध्य ही संशयों को नष्ट कर देता है; जिनके सान्निध्य से ही समस्याओं/ शंकाओं का समाधान हो जाता है, जो प्राणियों को सम्बोधते हैं, शिक्षा देते हैं (४४)।Page Navigation
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