Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1 Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi View full book textPage 6
________________ सम्पादकीय सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में समय-समय पर सामयिक परिसंवाद होते रहते हैं । इसी सन्दर्भ में इस परिसंवाद - पत्रिका में दो संगोष्ठियों का विवरण के साथ विवेचन एवं उनमें पढ़े गये निबन्धों का संग्रह छापा गया है । इस परिसंवाद में प्रथम संगोष्ठी के रूप में 'व्यष्टि समष्टि की समस्या' का विवेचन है । इस समस्या पर गंभीर विवेचन प्रमुखरूप से बौद्धदर्शन तथा आनुषंगिक रूप से अन्यभारतीय दर्शनों की दृष्टि से किया गया है । समस्या के विवेचन के लिए मानवज्ञान के विविध क्षेत्रों के ख्यातनामा विद्वानों का सहयोग लिया गया और उन्होंने बौद्धदर्शन के आधारभूत प्राथमिक पत्रों के आधार पर सामाजिक शास्त्रों से सम्बन्धित करके बौद्धदर्शन के परिप्रेक्ष्य में समष्टि व्यष्टि की समस्याओं का आकलन किया है । इस आकलन की रूपरेखा भूमिका के माध्यम से देखी जा सकती है । संस्कृत विश्व - विद्यालय एक परम्परावादी शास्त्रों के अध्ययन अध्यापन की संस्था है । इसकी शास्त्रपरम्परा में भी आधुनिकतम सामाजिक मूल्यों की विवेचना है, अतः आधुनिकतम मूल्यों के सदृश प्राचीन शास्त्रीय मूल्यों के विवेचन से वर्तमान पीढ़ी के लोगों को वर्तमानकालिक समस्याओं के समाधान में सहूलियत मिलेगी। इसी सन्दर्भ में समष्टि व्यष्टि की समस्या का विवेचन पठनीय है। फ्रांस की क्रान्ति के वाद समता, स्वतन्त्रता तथा विश्व बन्धुत्व के मूल्यों का विचार सम्पूर्ण विश्व के लोगों का प्रमुख विचारणीय विषय बन गया है । समता के मूल्य पर भी इस परिसंवाद में विचार किया गया है । समता के दार्शनिक विचारों के साथ परम्परागत पौराणिक, तान्त्रिक, धर्मशास्त्रीय विचारों का भी ख्यातनामा विद्वानों के द्वारा विवेचन प्रस्तुत है, साथ ही आधुनिक समता के प्रत्ययों का विवेचन आधुनिक विद्वानों द्वारा प्राचीन शास्त्रों के सन्दर्भ से किया गया है । आधुनिक भारत के नव निर्माताओं को इन निबन्धों से प्रेरणा प्राप्त हो सकती है, यदि वे इसको पढ़ने का कष्ट करते । राष्ट्रभाषा के माध्यम से प्रस्तुत इन प्राचीन नवीन सन्दर्भों के प्राप्त विश्लेषण के आधार पर शास्त्रों के प्रति लोगों की रुचि बढ़ेगी, ऐसी आशा है । परम्परागत शास्त्रों के विवेचन से निःसृत इन गोष्ठियों के प्रतिफलन के रूप में इस परिसंवाद के प्रकाशनार्थ संपादन करने का जब मुझको मौका प्राप्त हुआ तो मैं उसका लोभ संवरण न कर सका, और सम्पादन कार्य में जुट गया । परिसंवाद को 'विश्व संस्कृत सम्मेलन' के पूर्वं छपने के लिए प्रेरणा एवं सहायता देकर कुलपति डॉ० गौरीनाथ शास्त्री ने जो उत्साह बढ़ाया है उसके लिए मैं उनका हृदय से आभारी एवं कृतज्ञ हैं । इस संपादन कार्य में समय समय पर कठिनाइयाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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