Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 10
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 164
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्मबंधथी मुक्त थवामां, असंख्य योग घटेता; बंध विना नहीं मुक्तिनी सिद्धि, ज्ञानी एम वदंता. योग. २१ भीतिभक्ति वचन असंगे, परमप्रभु दिल घरवा; मनमां प्रगटता ज कषायो, उपयोगे परिहरवा... योग: २२ मनवचकायथकी ज अहिंसा, सत्यास्तेयने ध.रो; ब्रह्मचर्य संतोषक्षमाथी, आतमने अजवाळो. योग० २३ मैत्रीमुदिता करुणाभावना, मध्यस्थभावना योगोः शुभने शुद्ध उपयोगे रहेg, भोग छतां नहीं भोगो. योग० २४ अनासक्तिए सर्व संबंधो, जाळववा अधिकारे; कर्मयोगी थै कार्यों करवां, तरे योगी ते तारे. योग० २५ साधनक्षयोपशमशुभवृत्ति, प्रवृत्ति शुभयोगे; असंख्ययोगो सापेक्षाए, सिद्धयोग उपयोगे. योग० २६ क्षायिकभावे केवलज्ञानने, पामे योग ज पूरोः निरालंबनयोगे सिद्धि, कार्य नहींज अधुरो. योग० २७ सालंबनसाधन योगन छे, निरालंबन हेते; औपचारथी सद्भूतयोगने, पामो शुभसंकेते. योग० २८ सर्वकषायनी दुष्टत्तियो, रोधवी योग ते सारो; छंडी हिंसामय आचारो, धारो शुभ आचारो. योग० २९ दया सत्य ने ब्रह्मचर्यने, कंचनकामिनी त्यागे; आत्मस्वरूपे परिणमंतां, सर्वसिद्धियो जागे. योग० ३० मुद्रा आसन प्राणायामथी, एकांते नहि सिद्धि मोक्षाशाए राजयोगथी, प्रगटे अनंत ऋद्धि. योग० ३१ राजनी आगळ हठनी किंमत, कोडी सरखी जाणो; आत्मज्ञानीने सापेक्षाए, हठ छे साधन मानो. सिद्धियोनी मानमानी, भोगाशा सुख त्यागे; स्वाधिकारे साधन सफळां, मन रहेतां वैराग्ये. योग० ३३ For Private And Personal Use Only

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