Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 10
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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सुखदुःखे धारे समभाव, ज्ञानानन्दनो लेसा लहावे; विश्वमनुष्यो एवा थाय, कायदाबंधनमुक्त सुहाय.
आत्मिक स्वतंत्रता प्रगटाय, भव्य प्रजा मुज पदने पाय; मारामां मां नहीं भेद, वर्ते ज्ञानानन्द अभेद. स्वाधिकारे प्राप्त जे कर्म करवामां नहि होय अधर्म; उत्सर्गे अपवादे जाण, स्वाधिकारे कर्म प्रमाण. जाणे एवं प्रजा समाज, वर्ते त्यां आत्मिकसाम्राज्य; दोष अल्पने धर्म महान, पूर्णशुद्धियी छे निर्वाण. कर्मातीतपणाने पाय, आयुःप्रांते सिद्ध सुहाय केइक भव्यो स्वर्गे जाय, केइक मानवभवने पाय.
पुण्ये शांति तुष्टि थाय, द्रव्य भावथी पुष्टि पाय; पापना पन्थो टळता जाय, मुज भक्तो मुज सरखा था,
क्षेत्रने काळादिक अनुसार, प्रजासंघना सहु व्यवहार; जाणीवतें नरनेनार, पामे परमानंद निर्धार.
जैनधर्म एवो मुज जाण, प्रजासंघकर्तव्य प्रमाण; सापेक्षाए धर्मने जाण, निज अधिकारे वर्त !! सुजाण. श्रेणिक !!! तुजने प्रजासमाज-, कर्तव्ये समजाव्युं राज्य; त्यागीनुं आतममां राज्य, भूपोना पण ते महाराज,
तुं त्हारा अधिकारे चाल !!! शुद्धातमनुं धारो व्हाल; भव्यप्रजाकर्तव्य जणाव, आर्यपणाना लेवा लहाव. श्रेणिकने दीघो उपदेश, प्रजा भूग्ने हर्ष विशेषः प्रभुने प्रेमे लागे पाय, क्षण क्षण प्रभु समरी सुख पाय.
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