Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 10
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 193
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छांच न लेवे देवे कोय, राज्य कायदा पाळे सोय, न्याययकी जीविकात्ति, शुभ उपयोगे वाळे शक्ति. भव्यमजा एवी ज्यां होय, आनंद शांति पामे सोय; प्रजा स्वच्छंदी पापी थाय, दुःख अशांति त्यां उभराय. धर्मकर्मथी अळगी जाय, नास्तिक पाप करी हर्षाय; साधु संतना रहामा थाय, देशमना तममां अथडाय. देवगुरुने धर्मनो प्यार, पुण्य धर्म रुडा आचार; प्रजा भूपमा वर्ते त्यांय, दैवीसंकट दुःख न त्यांय. केफी त्यागे सर्व पदार्थ, समजे शास्त्रोना भावार्थ सघडा टंटा धर्मविवाद, टाळे अंतर्ना विषवाद. रजस्तमोगुणपत्ति कर्म, तेथी न्यारो आतमधर्म मोहनी आदि कर्म विनाश, करवा अंतर्मा अभ्यास. शानी भव्य प्रजा ज्यां एम, वर्ते त्यां के योगने क्षेम; झुंतु अंतर्थी नहि होय, कर्म करे व्यवहारे जोय. आसक्तिवण कार्यों करे, शुद्धातम निजपदने वरे सर्वातम निजसम देखाय, प्रजोन्नति स्वर्गीय मुहाय. आतम ते परमातम थाय, आत्ममहावीर व्यक्त जणाय%; चर्ते आध्यात्मिक साम्राज्य, स्वातंत्र्ये वर्ते ज समाज. दुष्ट कायदा रहे न त्यांय, प्रजासंघ, नीतिमय ज्यांय; पना सरीखा कायदा दंड, ज्यां त्यां वर्ते पिंड ब्रह्मांड. कर्म प्रमाणे सुख दुःख थाय, शुभाशुभ ए कर्मनो न्याय; कर्मयकी चाले संसार, प्रजा भूप सर्वे व्यवहार. उपयोगे नहि कर्मनो बंध, थाय न क्यारे क्यांये अंध; आतमज्ञानी अग्नि समान, कार्य करे निलेपी जाण. For Private And Personal Use Only

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