Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 10
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 174
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ ० मुजशरणे भाज्यां नरनार, सफळा तेना छे अवतार; तेओ आतमशुद्धि पाय, ज्ञानी योगी भक्तो थाय.. चारवर्ण आदि जनवर्ग, स्वस्वकर्म करंतां स्वर्ग; पामे देह त्यजी मुख बेश, अन्यभवे नहि पामे क्लेश. मुजमां मन राखी नरनार, वर्ते ते पामे भवपार; तर्या न कोना तार्या जेह, मुजभक्तिथी तरता तेह. नंदिवर्धन आदि भव्य, समज्या पोतानुं कर्तव्य; शोक त्यजीने शांति लह्या, प्रभुने ज्ञानयकी संस्तव्या. ..२ परब्रह्म ईश्वर महावीर, सर्वदेवपूजित महाधीर; सर्वविश्वनो तारणहार, तीर्थकर जिनवर अवतार. १०३ रही नहीं चिंता मन लेश, नाठो शोक घणो मन क्लेश; पिता मात वे पाम्यां स्वर्ग, त्यांथी विदेहमां अपवर्ग.. १०४ सर्वदेवदेवीशिरताज, तव आज्ञाए धारीश राज्य; स्वाधिकारे करतां कर्म, अकर्म उपयोगे छे शर्म. १०५ तुज उपदेशे नाठो भर्म, जाण्यो साचो आतमधर्म; नमवत् आतम अक्रिययोग, सत्ताए प्रगट्यो उपयोग. १०६ समकिती ज्ञानी निर्बध, सम्यग्दृष्टि छे नहि अंध; सापेक्षाए जाणे सत्य, तेनां सकळां छे सहुकृत्य. तुजउपदेशे जाण्यो धर्म, नाठो एकांतदृष्टिभर्म अनंत शक्तिनाथ महान् , महावीर प्रगट्या भगवान् . तप जप संयम बान प्रचार, दया दान दम भक्ति उदार; उपदेशीने विचोदार; करवा प्रगट्या छो निर्धार. वंदे पूजे स्तवे अपार, नमतो नंदि वार हजार; आनंदी थे सस्कर्तव्य, करतो स्वाधिकारे भव्य. For Private And Personal Use Only

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