Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 10
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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७८
साधर्मिकने देखे हर्ष, प्रगटे दर्शननो उत्कर्ष अरस्परस मळतां बहु व्हाल, थाय परस्पर बहु संभाळ. अरस्परसना दुःखमां भाग, लेवामाटे प्रगटे राग; अरस्परस अाइ जाय, मेळविषे नहि भेद जराय. संपनी सेवा ते निजसेव, मानी वर्ते तजे कुटेव संघाज्ञा वहेवामां मरे, संघ ते हुं मानी सहु करे.. नामरूपनो करे न मोह, करे न साधर्मिकनो द्रोह; साधर्मिक जो आवे घेर, स्वागतभक्ति करे बहुल्हेर. करे न संघतणुं अपमान, श्रमणादिकनुं धारे मान; सुज उपदेश सुणावी खाय, अन्योने धर्मी ज बनाय, रागद्वेष हणवा अभ्यास, करतो धारे मुज विश्वास, शरण करी मुज मुक्ति पाय, साधु दर्शन करीने खाय. एवा संघनी चढती थाय, सत्कर्मोथी हार न खाय; निर्भय स्वतंत्रता साम्राज्य, पामे बाह्यांतरनुं राज्य. व्यष्टिसमष्टिशक्ति अनंत, संघ सदा साकार भदंत; संघना नाशथकी महापाप, प्रगटे दुःख संकट संताप. कदि न लेवी संघनी हाय, संघनो शत्रु दुर्गति जाय: त्यागीसंघनी शुभ आशीष, मळतां चडती विश्वावीश. संघनो नाश ते मारो नाश, जाणी संघना थाओ दास; संघ के सागरवत् गंभीर, सेवी स्वयं बनो महावीर. जे काले जे योग्य जणाय, करवा लायक जेह गणाय; अतिशयज्ञानी सम्मत थाय, परिवर्तन रीवाजो पाय. चक्री इन्द्रादिक पण जेह, संघना दाससमा छे तेह; तेओ सारे संघनी सेव, संघ छतां ज छता छे देव..
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