Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 10
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 184
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८ साधर्मिकने देखे हर्ष, प्रगटे दर्शननो उत्कर्ष अरस्परस मळतां बहु व्हाल, थाय परस्पर बहु संभाळ. अरस्परसना दुःखमां भाग, लेवामाटे प्रगटे राग; अरस्परस अाइ जाय, मेळविषे नहि भेद जराय. संपनी सेवा ते निजसेव, मानी वर्ते तजे कुटेव संघाज्ञा वहेवामां मरे, संघ ते हुं मानी सहु करे.. नामरूपनो करे न मोह, करे न साधर्मिकनो द्रोह; साधर्मिक जो आवे घेर, स्वागतभक्ति करे बहुल्हेर. करे न संघतणुं अपमान, श्रमणादिकनुं धारे मान; सुज उपदेश सुणावी खाय, अन्योने धर्मी ज बनाय, रागद्वेष हणवा अभ्यास, करतो धारे मुज विश्वास, शरण करी मुज मुक्ति पाय, साधु दर्शन करीने खाय. एवा संघनी चढती थाय, सत्कर्मोथी हार न खाय; निर्भय स्वतंत्रता साम्राज्य, पामे बाह्यांतरनुं राज्य. व्यष्टिसमष्टिशक्ति अनंत, संघ सदा साकार भदंत; संघना नाशथकी महापाप, प्रगटे दुःख संकट संताप. कदि न लेवी संघनी हाय, संघनो शत्रु दुर्गति जाय: त्यागीसंघनी शुभ आशीष, मळतां चडती विश्वावीश. संघनो नाश ते मारो नाश, जाणी संघना थाओ दास; संघ के सागरवत् गंभीर, सेवी स्वयं बनो महावीर. जे काले जे योग्य जणाय, करवा लायक जेह गणाय; अतिशयज्ञानी सम्मत थाय, परिवर्तन रीवाजो पाय. चक्री इन्द्रादिक पण जेह, संघना दाससमा छे तेह; तेओ सारे संघनी सेव, संघ छतां ज छता छे देव.. For Private And Personal Use Only

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