Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 10
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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देव मनुष्यभव पुण्यर्थीजी, पापे नरकादिदुःख; पापकर्म नहीं कीजीएजी, पुण्य धर्मथी सुखरे. मोक्षाशा निश्चय करीजी, व्यवहारे पुण्यकर्म करीए आतम भावीएजी, प्रगटे आतमधर्मरे. पुण्य पाप पुद्गलदशाजी, छाया तापसमान; दर्शन ज्ञानानन्द छेजी, आतमधर्म प्रमाणरे. जड पुद्गलथी भिन्नछेजी, आतम निश्चय थाय; जडतनु म्यारो आतमाजी, समजे भ्रांति जायरे. कर्मनो कर्ता आतमाजी, परपरिणामेरे थाय निजनो कर्ता आतमाजी, निजपरिणामे सुहायरे. कर्मवियोगे मोक्षछेजी, मोक्षना हेतुरे सत्य ' दर्शनज्ञानचारित्रनांजी, द्रव्यने भावथी कृत्यरे. देवगुरुने धर्मनीजी, श्रद्धा समकितयोग; 'अनंतभवनी हेतुताजी, ग्रंथि याय वियोगरे. आठे कर्म ते जाणजोजी, द्रव्यकर्म निर्धार; रागने द्वेष छे भावथीजी, तनु नोकर्म विचाररे. भावकर्म टळतां टळेजी, द्रव्यकर्म नोकर्मः सर्वकर्मना क्षयथकीजी, प्रगटे मुक्तिशर्मरे.दुष्टवृत्तियो रोघतांजी, शुभदृत्ति व्यापार धर्मयोग प्रगटे दिलेजी, अहिंसा आचाररे. दुःखी जीवो देखतांजी, करुणा प्रगटे अपार; दयाधर्मकर्मो थतांजी, थाता पर उपकाररे. हिंसावृत्ति न उपजेजी, प्रगटे तुर्त शमाय; सत्यास्तेयने ब्रह्मथीजी, कर्म घणां रोकायरे.
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साचै० ४०
साचुं० ४१
साचुं० ४२
साधुं ० ४३
साधुं ० ४४
सार्चु० ४५
साचु० ४६
साचुं० ४७
साचुं० ४८
साचै० ४९
साचुं० ५०
सार्चु० ५१

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