Book Title: Bhagavana Mahavir aur Aushdh Vigyan
Author(s): Darshanvijay
Publisher: Bhikhabhai Kothari

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ [४] (१) जैन सों की रचना और अर्थ-पद्धति जैन भागमों की रचना और प्रर्थ शैली का इतिहास इम प्रकार मिलता है "ह बातोपोगो रिया, अपनत्वाऽनुयोगः सत्तापागा। तमानपत्यानुगोपो, पत्रकस्मिन्नेव सूबे सर्व एव परण करणारयः सम्पन्न, अनन्तपम पर्यावार्यकत्वात् समस्या। पूषकरवानुपोगाच पत्र मित व पास करलमेर, चिन्पुनधर्मकर्षक वेत्यादि । प्रनयोच "पाति अग्णारा, प्रजपुत कालियारण प्रोगस्सा । तेलाल पुतं कानिपसुप रिद्धि पाए " ॥७६२॥ (पापी हरिभा पूरि त श कालिक सूत्र टीका) प्रर्ष-मार्यवज स्वामी (विक्रम स० १७४) तक जिनागम के प्रपृषकत्व यानि चार चार अनुयोग होते थे । गमा, पर्याय पोर पर्ष मनन्त होते थे, सामान्य व विशेष, मुख्य व गौण तथा उन्सर्ग व पपवाद द्वारा सापेक्ष अनेक अर्थ होते थे। इन के पश्चात् पार्यरक्षित सूरि से जिनागम का पृषकन्व पनुयोग हुमा अर्थात् द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरण करण मनुयोग अथवा धर्मका अनुयोग ऐसा एक एक ही मर्थ रहा । पावश्यक निमुक्ति गाथा ७६२-७६३ मे भी यही उल्लेख है। कहने का पभिप्राय यह है कि एक एक अनुयोग वाला पर्ष शेष रहने के कारण किसी किसी स्थान पर यदि अर्थ-भ्रम दृष्टिगोचर हो तो वह संभव है। इस पर्य-भ्रम को दूर करने के लिए तत्कालिन पर्व शैली का ज्ञान होना चाहिये पौर पन्धकारस्तावक मन्तव्य को समझना चाहिये।

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49