Book Title: Bhagavana Mahavir aur Aushdh Vigyan
Author(s): Darshanvijay
Publisher: Bhikhabhai Kothari
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यो परिवस्मारक बना भगवान महावीर और पोषक विज्ञान मुनि दर्शन विजय जो ( त्रिपुटी) प्रकाशक मंत्री : भीखा भाई भूधर भाई कोठारी, मुंबई चंदुलाल लम्बु भाई परिख, महमदाबाद Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करवाई पगेम्व श्री मनमुख लाल भाई मी:बीपारिक म्मारक | Co छगनलाल जैकिशन प्रन्यमाला दाम जरीवाला नागजीभधर की पोल || मारवी की पाल किनारी बाजार, चादनी चौक म. अहमदाबाद मु० देहली-६ बोर सं० २४३ वि.स. २०१४ १०म० १९५७ क.पा.मं० ३६ भय महायक इस पद को भी तपागम्य बन भाविका सघ ने अपने नाम साता काय पवाया है प्रतः उनको धन्यवाद ! -प्रकाशक पुद्रक-पयन्स प्रिटिय क्स वामा मस्जिद, दिल्ली Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'बन्दे बोरम् थी चारित्रम् स्वतन्त्रता की गोद में ____समय परिवर्तनशील है। शताब्दियों का परतंत्र भारत माज स्वतंत्रता की श्वासे ले रहा है तथा प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहा है। __भारत एक धर्मप्रधान देश है, मत्य और महिमा की जन्म भूमि है। इमी धर्म-वसुन्धरा पर भारत की सर्वोच्च विभूति भगवान् श्री महावीर का जन्म हुप्रा । मत्य, हिसा अभयदान व मनेकान्तवाद इत्यादि उन्होंने विश्व को प्रदान किये समस्त संसार इस बात को अंगीकार करता है कि भगवान् महावीर मनमा वाचा कर्मणा अहिसा के प्रपालक थे । परन्तु । कुछ मांसा हार प्रचारक उन भगवान् महावीर के ऊपर मन गढन्त लांछन लगाने पर तुले हुए है। __श्री धर्मानन्द कोमम्बी पाली-भापा और बौद्ध-साहित्य के प्रकाण्ड पंडिन थे । 'भगवान् बुद्ध' पुस्तक में उन्होंने भगवान् महावीर के ऊपर मामाहार का कल्पित आरोप लगाया है और उसको प्रमाणित करने का प्रयन्न किया है। जैन दर्शन का व प्राकृतभाषा का पूर्ण ज्ञान न होने के कारण ही उन्होंने कथित पाठ का गलत अर्थ लगाया है उन्होंने कारुण्यमूर्ति 'श्री मौतम बुद्ध' को मांसाहारी कहा है तथा ब्राह्मणों को भी गौ-मांस भक्षक बताया है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवी की 'मदर इंडिया' तथा श्री कौसम्बी का बुद्ध प्रादि पुस्तक मरामर विष साहित्य हैं। ऐसी पुस्तकों को स्थायित्व प्रदान करना शील और सत्य का गला घोटना है। भारत सरकार ने सत्य भीर ग्रहिसा का बीड़ा उठाया है । भारत सरकार की साहित्य अकादमी ने 'भगवान् बुद्ध ग्रन्थ को प्रकाशित किया। सत्य और अहिंसा के प्रणेत के लिये वह कार्य प्रशोभनीय है । इस पुस्तक का प्रतिवाद करना सत्य प्रेमियों के लिये अनिवार्य हो जाता है। यह 'भगवान् महावीर प्रौर प्रोषध विज्ञान' पुस्तक प्रस्तुत है । इस मे सप्रमाण स्पष्ट किया गया है कि भगवान् महावीर ने मामाहार नही किया बल्कि बिजौरा पाक प्रौषधि के रूप में सेवन किया था । यह निर्णय केवल वैद्यक-ग्रन्थों और कोषो पर ही प्राधारित नहीं है बल्कि महापुरुषों की निर्दोष प्राहार चर्या, रोगशामक द्रव्य, प्रासंगिक परिस्थिति, तत्कालीन भाषा, परिभाषा, जैनों का महिंसा का पक्षपात भौर जैन श्रमणो की आहार शुद्धि इत्यादि से भी सिद्ध है। कोई भी गम्भीर साहित्य-चितक इस पुस्तक को पढ़ कर समझ सकता है कि भगवान् महावीर पर माँसाहार का प्रारोप की पराकाष्ठा है । संसार में भारत का ऊ चा स्थान है । वह सत्य प्रौर ग्रहिसा का पक्षपाती है। Religious Leaders ( धार्मिक नेता ) पुस्तक के प्रकाशित होने पर जो विवाद चला इस के सम्बन्ध में प्रल्पसंख्यकों की भावनाओं का प्रादर कर जनता के सामने अपनी न्याय-प्रियता का परिचय दिया है। हाल ही Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मे 'मरिता' के जुलाई भ्रक को जब्त करके सरकार में एक बाद फिर अपनी सत्य परायणता का उद्घोष किया है । इसी प्रकार 'भगवान बुद्ध' सम्बन्धी विवाद पर सरकार ऐसा ही कदम उठा कर महिमा प्रेमी जनता के सामने शुद्ध न्याय का परिचय देगी । इसी से भारत प्राज गौरवान्वित हो रहा है । अन्तम साहित्य अकादमी अपने दोहरे माप दण्ड को छोड और एम साहित्य को सदैव के लिय अशान्ति जनक करार दे । उसी म भारत की प्रतिष्ठा निहत है । में इस मनोकामना के साथ प्रस्तावना को समाप्त करता हूँ । 1 सब पि सुखिन सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः । मव भवाणि पश्यन्तु मा कश्चिद् पापमाचरेत ॥ म० २०१४ भा० शु० ४ बुधवार ना० २८-८-५७ देहली लेखक : मुनिदर्शन विजय * नोट यह प्रतिवाद कौशाम्बोजो की विघमानता में वि.सं. २००० ( इस्वी १९४३ ) में हमारी श्वेताम्बर - दिगम्बर- समन्वय पुस्तक प्रकाशित हो चुका है। फिर भी भारतसरकार द्वारा मान्यता सप्त साहित्य अकादमी उस विष साहित्य को पुनः प्रकाशित करके जनता के सामने रखती है। यह नीतिसगत नहीं है। - सुनि दर्शन विजय Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर मोर भौषध विज्ञान अध्याय १ नमो दुर रागादि वैरिवार निवारिणे । मर्हते योगिनाथाय, महावीराय तायिने ॥१॥ भारत के धर्मों में जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म है जो कि मांसाहार का सर्वथा निषेध करता है। जैन धर्म के प्रतिम तीर्थकर भगवान् महावीर बड़े तपस्वी थे, अहिंसा को साक्षात् मूर्ति थे। उनको मौनिक अहिंसा से उनके शासन में प्रवेश करने वाला इतना प्रभावित होता था कि वह मांस भक्षण का पूर्ण रूपेण त्याग कर देता था। इस कथन के समर्थन में अनेक दृष्टांत जन भागमों व बौद्ध त्रिपिटकों में पाये जाते है। यह स्पष्ट होने पर भी प्राजकल एक अजीव मापत्ति उठाई जा रही है कि भगवान महावीर ने मांसाहार किया पा। इस विचित्र कल्पना का निरसन करना वास्तविकता की स्थापना करना ही नहीं, वरन् एक भापश्य ता की पूर्ति करना है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] विषय का वास्तविक वर्णन भगवती सूत्र के पन्द्रहवें छातक में है। उसका मार निम्न है : जिस समय भगवान् महावीर मेंढ़िक ग्राम के शाल कोप्ट उद्यान में पधारे, उस समय उनके शरीर में तेजो लेश्या की ऊष्णता से उत्पन्न पित्त-ज्वर का जोर था, रक्त प्रतिसार हो रहा था । रोग ने भयंकर रूप धारण किया हुआ था । ऐसी स्थिति को देख कर परमनावलम्बी कहने लगे कि भगवान् महावीर की छः मास की छद्यस्थ अवस्था में ही मृत्यु हो जायेगी । भगवान् का परम धनुरागी मुनि सिंह को, जो कि मालुका वन में तपस्या कर रहा था, जब इम लोक चर्चा का पता चला तो वह बहुत क्षुब्ध हुप्रा श्रीर अपने मन में इस बात की कल्पना करके कि कहीं परमतावलम्बियों का कथन सच न हो जाये, रूदन करने लगा । भगवान् ने तत्काल मुनि सिंह को बुला कर कहा-वत्स सिंह ! तू दुःखी मत हो, मेरी मृत्यु छ महीने में नहीं होगी । में १६ वर्ष तक तीर्थङ्कर की अवस्था मे जीवित रहूँगा । तथापि, यदि मेरे इस रोग से तुझे दुःख होता है तो एक काम कर । इस मेंढक ग्राम में गायापति की पत्नी रेवती रहती है। उसके वहां चला जा । उसने मेरे निमित्त जो प्रोषध बना कर तैयार रती है, उसे नहीं लाना । केवल उसके वहाँ रखो पुरानो प्रोषध ले पाना । मुनि सिंह भगवान् की प्राज्ञा पाकर मानन्दित होता हुधा रेवती के घर गया प्रौर प्रौषध ले प्राया । प्रौषध सेवन से भगवान् का रोग शांत हो गया । 1 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३] उक्त मौषष के लिये प्राकृत भाषा में इस प्रकार लिखा है:___ तत्व रेवती ए गाहावइसीए, मम बहाए दुवे कबोय सगरा उवखडिया, तेहिं नो अट्ठो । अस्थि से भन्ने पारियासिए मज्जार कड़ए इमरमंसए तमा --भगवती पत्र पन्द्रहवां शतक । इस पाठ के प्रत्येक शब्द की व्याख्या की जायेगी। किन्तु इस मम्बन्ध में यह स्पष्ट कर देना प्रावश्यक है कि २५०० वर्ष पूर्व भगवान् महावीर द्वारा भाषित मागधी-प्राकृत के इन शब्दों के अर्थ या भावार्थ को अनेक प्रकार मे संस्कारित स्वकालीन प्रचलित भाषा के शब्दों का पर्याय बना लिया जाय तो यह सरासर भूल है । ऐमो भूल से बचने के लिये प्रारम्भ में निम्न बातों का ज्ञान होना प्रावश्यक है। (१) जैन सूत्रों की रचना और प्रर्थ-पद्धति, (२) प्राकृत और संस्कृत के अनेकार्य शब्द, (३) वर्तमान काल के कुछ प्रनेकार्थ शब्द, (४) प्रोषध सेवन करने वाले और जुटाने वाले का जीवन संस्कार, (५) प्रौषध प्रदान करने वाली स्त्री का व्यवहारिक जीवन; (६) रोग, मोषध पौर नियमा नियम का विज्ञान । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] (१) जैन सों की रचना और अर्थ-पद्धति जैन भागमों की रचना और प्रर्थ शैली का इतिहास इम प्रकार मिलता है "ह बातोपोगो रिया, अपनत्वाऽनुयोगः सत्तापागा। तमानपत्यानुगोपो, पत्रकस्मिन्नेव सूबे सर्व एव परण करणारयः सम्पन्न, अनन्तपम पर्यावार्यकत्वात् समस्या। पूषकरवानुपोगाच पत्र मित व पास करलमेर, चिन्पुनधर्मकर्षक वेत्यादि । प्रनयोच "पाति अग्णारा, प्रजपुत कालियारण प्रोगस्सा । तेलाल पुतं कानिपसुप रिद्धि पाए " ॥७६२॥ (पापी हरिभा पूरि त श कालिक सूत्र टीका) प्रर्ष-मार्यवज स्वामी (विक्रम स० १७४) तक जिनागम के प्रपृषकत्व यानि चार चार अनुयोग होते थे । गमा, पर्याय पोर पर्ष मनन्त होते थे, सामान्य व विशेष, मुख्य व गौण तथा उन्सर्ग व पपवाद द्वारा सापेक्ष अनेक अर्थ होते थे। इन के पश्चात् पार्यरक्षित सूरि से जिनागम का पृषकन्व पनुयोग हुमा अर्थात् द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरण करण मनुयोग अथवा धर्मका अनुयोग ऐसा एक एक ही मर्थ रहा । पावश्यक निमुक्ति गाथा ७६२-७६३ मे भी यही उल्लेख है। कहने का पभिप्राय यह है कि एक एक अनुयोग वाला पर्ष शेष रहने के कारण किसी किसी स्थान पर यदि अर्थ-भ्रम दृष्टिगोचर हो तो वह संभव है। इस पर्य-भ्रम को दूर करने के लिए तत्कालिन पर्व शैली का ज्ञान होना चाहिये पौर पन्धकारस्तावक मन्तव्य को समझना चाहिये। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ ] (२) प्राकृत और संस्कृत भाषा के अनेकार्य प्राकृत प्रौर संस्कृत भाषा में वनस्पतियों के कई ऐसे नाम है जिनसे सामान्यतः विभिन्न प्राणियों का बोध होता है । जैसे... ---- बिल्ली ( गा० १६ ), ऐरावण (२१), गयमारिणी (२२), पचागुली (२६), गोवाली (२६), बिल्ली (३७), मडुक्की (३८), लोहिणी ( प्रस्सकण्ण, सीह कन्नी, सिउडि, मुमुठि) (४३), विरामी (४४), चण्डी (४६) भंगी (४७) ( पन्नवणा सूत्र पद १ सू० २३-२४ ) प्रम्म कर्णी, सीह कण्णी, सीऊ ठि, मूसुठि । ( जीवाभिगम सूत्र प्रति ० १ सू०२१२७) ऐरावण = लकुचफल । मडुकी (गु० ) कोली । रावण = तदुक फल | पतंग (हिन्दी) प्रहुप्रा ( गु० महुड़ा) । तापसप्रिया = प्रगूर - दाख । कच्छप = नदिजीणी दरखत । गेजिह्वा = गोभी | मांसल = तरबूज । 1 बिम्बि= कडूरी का साग । चतुष्पदी = भिन्डी (जै० स० प्र० क्र० ४३ ) मार्जारि = कस्तूरी मृगनाभि = मुश्क । हम्ति = तगर ( पृ०२८) अडा = प्रॉवला ( पृ० १०६) । मकंटी, वानरी = काँच ( ३४३ ) वन शुकरी = मुडी ( ४११), कुकड़ बेल = गुजराती प्रौषधि (४५६) लाल मुर्गा = हिन्दी प्रौषधि ( ५०१), चतुष्पद = भिण्डी (८८१) मांसफल = तरबूज (१०३ ) ( शालिग्राम निषष्दु भूषण - ६) " Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित्तज्वर नाशक औषधि (शब्द सिधु कोष पृ०८१७) रंगा= केले का पेड़, मरकटतंतु (मकड़ी) अमरवेल (शब्द कोश) लक्ष्मण - प्रसर कटाली, जड़, राम = चिरायता लक्ष्मी = कालीमिर्च, दास = हल्दी सीता = मिश्री, पार्वती = देशी हल्दी ब्रह्मा = पलास पापड़ा, विभिषण = वरकुल मूल विष्णु = पीपल, रावण = इन्द्रायण तुहरा शिव - हरड़, महामुनि = प्रगस्त छाल अर्जुन = प्रर्जुनछाल, चन्द्र = बावची पप्रनाम = लकड़ी जाति, सूर्य = प्राक कृष्ण = गजपीपल, रमा = शीतल मिर्च (अष्टाभिधान शब्द कोश) भाव प्रकाश निघण्टु मे प्राणी वाचक पौर प्राणी नाम सूचक अनेक वनस्पतियों का वर्णन है जिन मे से कतिपय ये है: (१) हरितक्यादि वर्ग मे-हरितकी, जीवन्ती = अस्थिमती, पूतना (६ से ११) वैदेहो, पिप्पली, (५३) गजपिप्पली (६७)चित्रको व्याल (६६) प्रजमोदा, खराश्वा, च मायुरो (७७) वचा गोलोमा (१०१) वंशलोचना, वैष्णवी (११७) ऋषभो, वृषभो धीरो, विषाणी न् द्राक्ष (१२५) अश्वगन्धा (१४३-४५) ऋदि वृद्धि वाराही (१४३-१५५) कटवी, प्रशोका मत्स्यशकला, पांगी, शकुलादनी मत्स्यपिता (१५४) इन्द यवं, स्वचिदिन्द्रस्य नामव भवेत्ततचायत (१६०) नाकुलो (१९८) मयुर बिदला, केशी (१७०) कांगुनी, Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७] पारापतपदी (१७४) शृंगी (२१४) मातुलानी, मावली, विजया, जया (२३३), स्वजिका क्षार, कापोत [२५२] (२) कर्पूरादि वर्ग मे-पतंग (१८-१६), जटायु, कौशिक (३२) नाग (६६) गोरोचना, गोरी (७६) जटामासी, तपस्विनी, (८६) पियंगु, विश्व सेनांगनां (१०१) रेणुका राजपुत्री च नन्दिनीकपिला द्विजा, पाडु पुत्री कौन्ती (१०४) काक पुच्छ (१०७) कुककुर रोम शुक (१०६) निशाचरो, धनहर किनवो (१११) ब्राह्मणी देवी मरून्माला (१२५) कपोतचरणा नटी (१२६) (३) गडूच्यादि वर्ग मे --जीवती (७) नागिनी (१०) जया, जयन्ती (२४) सिह पुच्छी (३४) सिही (३६) व्याघ्री (३८) गोभुरः प्रश्वदष्टा (४४-४५)जीवती जीवनी, जीवा, जीवनीया (५०) हय पुच्छिका (५५) व्याघ्र पुच्छ: (६१) सिह तुण्ड वजी (७५) मातुल (८७) सिहिका सिंहास्यो वाजिदन्त (८६-६०) विष्णुकान्ता अपराजिता [१२३] कर्कटी वायसी, करजा (१२५)काकादनी ( १२८) कपिकच्छू: मकंटी लांगुली ( १३०,१३१) माम रोहिणी ( १३३) मत्स्य निषूदन (१३५) लक्ष्मण (१४१) काकायु (१४६ )गौलोमी ( १४६) मत्स्याक्षी-शकुलादनी (१७४) वाराही कोष्टी,(१७६-१७८) नारायणी (१८२)प्रश्वगधा, ह्वया हया, बाराह कर्णी (१८७) वाराहांगी ( १९६)जयपाल(२००)ऐन्द्री (२०१)मुन्डी भिक्षुरपि प्रोक्ता श्रावणी च तपोधना, महा श्रवणिका तपस्विनी (२१४. २१६) मर्कटी (२१६) कोकी, लाक्षास्तु काकेशु. ( २२४) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [-] मिण (२२५) अस्थि शृंखला (२२६) कुमारी गृहकन्या चकन्या घृत कुमारिका (२३२) कृष्ण बाल: कुमारी राज बलाः (२३८) श्यामा गोपी गोप वधू गोपी गोप कन्या (२४०-२४१) देवी गोकर्णी (२४८-२४६) काका वायसी (२५०) काकनासा तु काकांगो, काकतुण्डफला च सा (२५२) काकजंघा पारापत पदी दासी काका (२४५) राम दूतिका (२५६) हसपादी हंसपदी (२६०) द्विज प्रिया २६१) वन्दा (२६५) मोहिनी रेवती ( २६६) मत्स्याक्षी, वाल्हीकी, मत्स्यगन्धा, मत्स्यादनी (२७०) सर्पाक्षी (२७१) शिवा (२८०) गडणा , मण्डूको (२८३) कन्या (२६१) स्यादनी, मत्स्यगधा, लांगली (२६६) गोजोव्हा (३००) सुदर्शना (३१२) पाखुकर्णी (३१३) मयुरशिखा (३१५) (४) पुष्पवर्ग मे पपिनी (७)पमा(१५)महाकुमारी (२२) नेपाली (२३) गणिका (२८) पाशुपत, बक (३३) कुब्ज (३६) माधवी (४०) नट (४७) सहचर दासी (५०-५१) प्रति विष्णु (५४) बन्धुजीव (५६) मुनिपुष्प, मुनिद्रुम (५६) गौरी (६१)फणी (६४) मुनिपुत्र, तपोधन, कुलपुत्र (२६६)बर्वरी (६८) (५) फलवर्ग में:-कामांग (१) कामराज पुत्र (२२) रम्भा (३१) दन्तशठ (६०-१३४-१४०) वानप्रस्थ (६४) गोस्तनी (११०) (६) बटादि वर्ग में:-बटी (११) प्रश्वकर्म (१९२०) प्रजकर्ण (२१ गपुनवीर (२६-२७) गायत्री, मनियः(३०-३१) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [C] पुत्र जीव ( ३६-४० ) कच्छप (४४) याशिक (४८) कुमारक (६२) लक्ष्मी (६८) नेमी (७१) (७) शाक वर्ग में: - - शफरी (२४) कुक्कुट : शिखी, (३०) गोजिव्हा (३९) वाराही (१०७) मनेकार्थ वर्ग में:- प्रजशृंगी, मेष शृंगी, कर्कट श्रृंगीच, ब्राह्मी ब्राह्मणी, भाङ्ग स्पृक्काच । अपराजिता = विष्णु कान्ता, शालपर्णीच, पारातपदी, ज्योतिष्मती काक जंघा च । गोलोमी = श्वेत दुर्वा वचा च । पद्मा = पद्मचारिणी, भाङ्गी च श्यामा सारिवा प्रियंगुश्च । ऐन्द्री = इन्द्र वारुणी, इन्द्राणी च । चर्मकषा = शातला, मांस रोहिणी च । रूहा = दुर्वा मांसरोहिणी च। सिंही = वृहती वासा च । नागिनी = तांबुली, नाग पुष्पी च । नटः = श्यो नाक: प्रशोकश्च । कुमारी = घृत कुमारिका शत पत्री च । राजपुत्रोका = रेणुका जाती च । चन्द्र हासा = गडूची लक्ष्मणा च । मर्कटी = कपि कच्छ्रः प्रपामार्गः करेजी च । कृष्णा = पिप्पली, कालाजाजी, नीली च । मंडूक पूर्ण = श्योनाक: मंजिष्ठा, ब्रह्ममंण्डू की च । जीवंती = गडूची, शाक भेदः वृन्दा च । वरदा = अश्वगंधा, सुवर्चला कराही च । लक्ष्मी = ऋद्धिः वृद्धिः शमी च । वीरः ककुभः वीरणम् कांकोली च शरश्च । मयुरः = प्रपामार्ग: प्रजमोदा तुत्थं च । रक्त सार = पतंग आदि । बदरा, = वाराही, भादि । सुबहा = नाकुली प्रादि । देवी स्पृक्का मूर्वा कर्कोटी च । लांगली = कलिहारी पिटी नारिकेलर नारिकेल विशल्या 1 1 च। चंद्रिका = मेथी, चन्द्र शूरः श्वेत कष्टकारी च । प्रक्ष शब्दः स्मृतोष्टसु || १॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१] काकास्यः काकमाची च काकोली काकणन्तिका । काकजंघा काकनासा काकोदुम्मारिकापि च ॥२॥ सप्तस्वयेंषु कथितः काकशब्दो विचक्षणः । ॥२॥ सपी पंच, सीसके नागकेसरे ।। नागवल्यां नागदन्त्यां नागशब्दश्च युज्यते ॥३॥ रसो नव वर्तते ॥४॥ चन्द्रलेखा = बकुचो इश्वरम् = पित्तल प्रश्वकर्ण = ईसबगोल फणी = श्वेनचन्दन पातालनृप = सीसा लक्ष्मी = लोहा हरि = गुलाल पुरुष = गुगल माद्री = प्रतीस नागार्जुनी = दुढी,कह बहुपुत्रा - यवासा राक्षसी = राई शवसुधा = शतावर मुकुन्द = कुन्दर कुमारी = घीगुवार महाबला - सहदेई सकारि = कचनार रक्तबीज - मूगफली मुड - सरकंडा लागली - कलिहारी तरुण = एरण्ड चंडालिनी = लहसुन उरग = मोसा कृष्णबीज = कालादाना ताम्रकूट = तमाखू [बम्बई पुस्तक एजन्सी, कलकत्ता से प्रकाशित-साहित्य शास्त्री पं० रामतेज पाण्डेय कृत टिप्पणी युक्त, पं. भावमिश्रका भाव प्रकाशनिषष्ट : प्रथमा वृत्ति-वि० स० १९९२ ] ३. वर्तमान काल के भनेकार्थ शब्द माज कल के भी कई प्रचलित शब्द ऐसे है जिनका पर्व, प्राणी पार वनस्पति के प्रसंग में प्रयोग होने पर, विभिन्न हो जाता है। जैसे : Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१] कुकड़ी [२] गलगल [३] चील ४] गील्होड़ी [५] कवेला [६] पोपटा [७] लज्जालु [ ११ ] प्राणी बोधक अर्थ मुर्गी (गुजरात) गुट्टार पक्षी चीन पक्षी (उत्तर प्रदेश) गिलहरी (उत्तर प्रदेश) बनस्पति बोधक वर्ष भुट्ट बिजौरा चील की भांजी शाक सफेद कोला (पेठा) वीभत्स अंग (मालवा) हरा चना (गुजरात) छुद्दमुई, पौदे की जाति (गुजरात) स्त्री ४. भौषध सेवन करने वाले और जुटाने वाले का जीवन - संस्कार इस प्रौषध को लाने की प्राज्ञा देने वाले भगवान महावीर है और लाने वाले पंचमहाव्रत धारक महातपस्वी मुनि श्री सिंह हैं जो मनसा वाचा कर्मणा हिसा के विरोधी है। वे महिमा के महान उपदेशक है तथा स्वयं उम पर प्राचरण करते हैं । यदि उपदेशक किमी मिद्धति की प्ररूपणा करे किन्तु उसे अपने प्राचरण में न उतारे तो उस सिद्धांत का जनसामान्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । [ गौतम बुद्ध ने अहिंसा के सिद्धांत का तो प्रचार किया, किन्तु स्वयं ने मांसाहार का त्याग नहीं किया । फलतः प्राज भी बोद्ध धर्मावलम्बियों में मांसाहार का प्रचलन है । ] भगवान महावीर ने अहिंसा का संदेश दिया और साथ साथ उससे प्रपने जीवन को भी प्रोत प्रोत कर दिया व प्रहिंसा का पूर्णरूपेण पालन किया । इस कारण भाज भी जैन धर्म में मासहार पूर्ण रूप से त्याज्य है । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] केवल यहो नहीं, अहिंमा शब्द मात्र का सामान्य वातां में प्रयोग होना ही जैन धर्म की पोर ध्यान प्राकर्षित करने के लिये पर्याप्त है। यह तथ्य भगवान महावीर के अहिंसामय जीवन का ज्वलंत प्रमाण है। भगवान महावीर की वाणी में मांसाहार का सर्वथा निषेध है, जिसके कई पाठ निम्न है : (१) से मिल्नु पा० नाव समारों से जं पुरण जाणेग्या मंसाइयं वा छाया सन बामधलं पामो अभिसंधारिक गमगाए । (पाचारांग सूत्र, निशिय सूत्र ) जैन भिक्षुक को यदि कही माम, मछली अथवा उसके छिलके-काट प्रादि होने का पता लग जाय तो वह वहाँ न जाये। (२) समजामसासिरणे ॥ (सूत्र, कृतांग सूत्र प० २) जैन साधु मांस-मदिरा का त्याग करें । (1) ये पावी भूगन्ति तहप्पगार, सेवन्ति ते पाबमजाणमारणा, मलंग एपं कुसलं करतो पायाबि एसा बुईगाउ मिया । (सूत्र हतांग सूत्र भूत०-२० ६ गा० ३८) जो मांस-मदिरा का सेवन करते है, प्रज्ञानता से पाप करते हैं, उनका मन अपवित्र है पौर वचन भी झूठा है। (४) महारंभयाए परिहियाए, कुरिणमाहारण पंवेनिय बहेणं मेरावारण कम्मासरी राप्पयोग नामाए कम्मरम उपएणं नरापारण कम्मा सरीरे बाब पयोग बम्। (बो भगवती सूत्र १० ८३०६०) जीव चार प्रकार के कामों से नरक में जाने के लिये कर्म बांधते है । वह है-(१) महापाप का पारम्भ ; (२) महा परि Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३] ग्रह (धनादि संग्रह ); (३) पंचेन्द्रिय जीव का वष; तथा (४) मुग्दे का भक्षण ( मामाहार) ___ (५-६) चहि गणेहि जोवा रायताए कम्म पति, सताए कम्मं पकरेता, ऐरएसु उपबति तंजहा-महारंभ पाए महापरिगह पाए, पचिरियबहेणं कुणिमा हारेणं । (पो उबबाई सूत्र) (भो स्थानागं सूत्र स्थान ४) महारम्भ, महापरिग्रह, मामाहार व पचेन्द्रिय वष से बाधे हुए कर्म के उदय से नारको को प्रायु व नारकी के शरीर बनते है। (७) भुजमाणे सुरं मंसं परिवा परंयमे प्रय पर भोई प, तुंदिरमे विश्लोहिए। माउयं नरए कंजे, जहाँ एस व एमए ॥७॥ ( उत्तराध्यपन ० ० ७ गा० ७) मदिग पान, माम भक्षग, गडापन प्रादि में नारको की प्रायु का वध होता है। (८) हिसे वाले मुसाबाई, माईल्ने पिसणे सो भुंगमाणे सुरं मंसं, सेय मेति मन्नई ॥६॥ तुहं पियाईमसाई, गंगा सोलगालिये। बाइम्रो सिमपार, अग्गिवणारा सो ॥६॥ (उत्तराप्ययन स० प्र० ५ गा० १० १९०७) हिमक प्रज, भूटा, मायावी, चुगलखोर, गठ तथा माममदिरा भक्षी होता है और समझता है कि यहो जीवन का मानन्द है। तुझे यदि मांम, मांस की पकाई हुई फांक प्रिय है तो तुं भी उसी प्रकार खाया व पकाया जायगा। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) पनजामसांसी, समन्धरोपा, अभिमतं निधिगई गया है। अनिलं कारसगकारी, सरमाय गोगे पप यो हविया ॥ (श्री बमकालिक सूत्र. २ मा० ७) शराब छोड़ दे, मांस छोड़ दे, विकृति । रम-पुष्ट ) भोजन को कम कर, बार बार कायोत्संग, स्वध्याय योग में लीन होजा । (१०) भेसग्नं पियमसं रेई, प्रपनन्नई जो बस्स । सो तस्स मल्ललग्गो, बन्दा नरपं ग संदेहो । जो पोषधि में मांम खिलावे या मम्मति दे वह उसका पिछलग्गू होकर नरक में जाता है । (११) पुग्णषं बीभरवं इन्दियमलसम्भवं पसायं । पाएग नरपरणं विपरिणामो मं ॥१॥ मांस दुर्गध वाला है, वीभन्म है, शरीर के मलों से बना हुमा है, अपवित्र है और नरक में ले जाने वाला है। प्रतः त्याज्य है। १ सपः समूचितानन्त-जन्तु संतान पूषितम् । मरकापनि पापं, कोशनीपात् पिशित सुची ? ॥२॥ मांस में क्षण भर में ही अनन्त सूक्ष्म कीटाणुगों का जन्म पौर विनाश होता है। वह नरक के मार्ग में ले जाने वाला भोजन है । कौन बुद्धिमान मे मांम को खाय ?। २ पागात पातु म विपिन्चामाखात मंस पेसीतु । सर्व शिष पायो भलिपोर निनोपजीपालं ॥३॥ (घोष माला प्रकाश लोक पूनर टीका) मांस कच्चा हो या पकाया हमा, उसकी हर एक फांक में निर्वाध रूप से निगोद के जीव उत्पन्न होते हैं। ३ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] इन पाठों से भगवान् महावीर के प्रादर्श अहिंसामय जीवन का और उनके द्वारा प्रदत्त अहिंसा के उपदेश का पूरा पूरा परिचय मिल जाता है । ऐसी स्थिति में उनको मांसा हारी मानना, कहना व लिखना मन का, वाणी का तथा लेखनी का दुरउपयोग करना है । ५. मौषष प्रदान करने वाली स्त्री का व्यवहारिक जीवन सिंह मुनि उस पौषष को किमो कसाई के यहां से प्रषवा यज्ञ-स्थल से नहीं लाये थे। वह उसे एक जैन श्राविका के घर से लाये थे जिसका नाम था रेवती । जैनागम में उम समय रेवती नाम की दो स्त्रियों का उल्लेख हुमा है। (१) एक रेवतो थी राजगृही के महाशतक की स्त्री जिसके बारे में कहा गया। "तएणं सा रेवइ गाहावइणी मंतोमत्तरस्म मलमएणं वाहिणा अभिभुमा अट्ट दुहट्ट वसट्टा काल मामे कालं किच्चा इमी से रयणप्पभाए पुढवीए लोलु एच्चुए नरए चउरासीई वासहठिइएमु नेरइएसु नेनडएताए उववण्णा" । -(श्री उपासक दांग सूत्र) (२) दूसरी रेवती थी मेंढिक ग्राम निवासिनी जैन श्राविका जिसके सम्बन्ध में इस प्रकार का वर्णन है । "समणस्य भगवनो महावीरस्स सुलसा रेवइ पामुक्खाणं समगोवासियाणं तिन्नी सय साहस्सीमो अट्ठारस सहस्सा उस्फोसिय सापोवासिय संपया हत्था ।" -(श्री कल्प सूत्र वीर परित्र) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१] "तएणं तीए रेवतीए गाहावइनीए तेनं दब सुढे जाव दाणेणं सीहे मणगारे सिभिल समाणे देवाउए णिबदे, जहा विजयस्स, जाव जम्म जीविय फले रेवती गाहावाणीए" -श्री भगवती सूत्र श० १५) सिंह मुनि मृत्योपरांत नरक में जाने वाली राजगृही ग्राम की रेवती के घर से मोषध नहीं लाये थे। वह तो मेंटिक ग्राम वाली रेवती से उक्त प्रोषध लाये थे। दिगम्बर सम्प्रदाय के विद्वान् भी रेवती ( मेंटिक ग्राम वाली) के इस प्रोषपदान की प्रशंसा करते हैं और तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन करने का कारण यही था, इसको स्पष्ट स्वीकार करते हैं । यथा "रेवती श्राविकया श्री वीरस्य पोषपदानं दत्तम् । तेनौषधिदानफलेन तीर्थंकर नाम कर्मोपाजितमत एव पोषषि दानमपि दातव्यम् । (हिन्दी जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय बम्बई की बन चरित माला नं. ६ (सम्यकत्व कोमुवी पृ० ५७ ) जो श्रेष्ठ श्राविका है, द्वादश व्रत पारिणी है. मृत्यु उपरान्त देव लोक को जाती है तथा दान से तीर नाम कर्म का उपार्जन करती है, वह रेवती मांसाहार करे या उस तीर्थपुर नाम कर्म के कारण स्वरूप मांस का दान करे, ऐसी कल्पना करना निपट मूखता है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७] ६. रोग, औषध र नियमा नियम का विज्ञान जिस रोगके लिये उक्त भौषध लाया गया था, उस रोग का नाम था 'पित्तज्वर' । 'परिगये शरीरे दाह वक्कं तिए' का प्राशय है पित्तज्वर भोर दाह, जिस में प्ररुचि, जलन तथा रक्तातिसार मुख्य लक्षण होते हैं। इस रोग को शांत करने के लिये कोला, बिजोरा प्रादि तरी देने वाले फल, उनका मुरब्बा, पेठा, कवेला, पारावत फल, चतुष्पत्री भाजी, खटाई वाली भाजी इत्यादि प्रशस्त माने जाते हैं। इस रोग में मांस का सख्त निषेध (परहेज) होता है । वैद्यक ग्रंथों में साफ साफ कहा गया है - " स्निग्धं उष्णं गुरु रक्त पित्त जनकं वातहंरच " मांस ऊष्ण है, भारी है, रक्तपित्त को बढ़ाने वाला है । प्रत: इस रोग में मांस सर्वथा निषिद्ध है। इस रोग में कोला प्रौर बिजौरा लाभकारी हैं। ( कयदेव निघण्टु, सुश्रुत सहिता ) उपरोक्त कथन से यह निश्चित हो जाता है कि वह प्रोषध माँस नहीं था वरन् तरी देने वाला कोई फल या फल का मुरब्बा था। इन सब बातों को ध्यान में रख कर हम पाठ की शाब्दिक विवेचना अगले प्रध्याय में करेंगे। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] दूसरा अध्याय हमारे सम्बन्धित विषय का मूल पाठ इस प्रकार है । "तत्थवं हे वइबीए मम भट्ठाए दुवे कवोय- सरीरा उबक्खड़िया तेहिं नो अट्ठो । भत्थि से अन्ने पारियासिए मज्जारकड़ कुक्कुड़ मंसए तमाहराहि एएवं भट्ठो ।" (श्री भगवती सूत्र शतक - १५) इस पाठ के विचारणीय शब्द ये हैं: - ( १ ) दुवे (२) कवोय ( ३ ) सरीरा ( ४ ) उवक्खड़िया ( ५ ) नो भट्ठो (६) भन्ने (७) पारियासिए (८) मज्जार (E) कड़ए (१०) कुक्कुड़ (११) मंसए । ( १ ) दुवे यह शब्द 'कवोय' की ही नहीं किन्तु 'कवोय सरीरा' की भी संख्या बताता है । प्रतः इसका अर्थ दो कवोय नहीं बल्कि कवोय के दो मुरब्बे है । यदि कवोय का अर्थ पक्षी विशेष से लिया जाय तो यहाँ दुवे तथा सरीरा शब्दों में समन्वय नहीं हो सकता क्यों कि पूरा कबूतर नहीं पकाया जाता मोर यदि अंगोपांग अलग लग करके पकाया जाय तो दो सरीर ऐसी संख्या नहीं रहती । म्रर्थात् दुवे भौर सरीरा इन दोनों शब्दों में एक शब्द निरर्थक हो जाता है । यदि कवोय का अर्थ किसी वनस्पति विशेष से लिया जाय तो यहां दुवे भौर सरीरा इन दोनों का ठीक समन्वय हो जाता है । कवोय फल का मुरब्बा बना हुआ हो उसके दो सम्पूर्ण फलों से 'दो' संख्या का बोध हो जाता है, एवं कवोय फल के मुरब्बे के लिये 'दुवे कवोय सरीरा' प्रदि Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१] शब्द समूह का प्रयोग भी सार्थक हो जाता है । प्रत: इस बात को स्वीकार करना ही पड़ेगा कि यहां कवोय शब्द का किसी प्राणी (पक्षी) के लिये नहीं वरन् फल के लिये प्रयोग किया गया है । यह बात दुवे शब्द से सिद्ध हो जाती है । प्रतः इस स्थान पर दुवे शब्द महत्वपूर्ण है । (२) कोय कवोय एक प्रकार की खाद्य वनस्पति है । यह पूरी की पूरी उपष्कृत हो सकती है घोर बहुत समय तक टिक सकती है । इसके सेवन से ऊष्णता, पित्तज्वर, रक्तविकार तथा प्रामातिसार प्रादि रोग शांत होते हैं । कवय का संस्कृत पर्याय 'कपोत' है । कपोत प्रौर कपोत से निर्मित शब्दों में अर्थ - वैभिन्य होता है जो निम्न व्यौरे से भलि भांति प्रकट हो जायेगा । कोत = एक प्रकार की वनस्पति ( सुश्रुत संहिता) । कपोत = पारापतः कलरवः, कपोत, कमेडा, कबूतर । कपोत = पारीस पीपर ( वैद्यक शब्द सिन्धु ) । कपोत = कुष्मांड, सफेद कुम्हेडा, भुरा कोला । कपोती वृत्ति = सादा जीवन निर्वाह । कापोती = कृष्ण कापोती, श्वेत कापोती, वनस्पति (सुश्रुत संहिता) श्वेत कपोती समूलपत्रा भक्षयितव्या [सुभुत सं० प्र० ८२१] सक्षीत रोमशां मुवर्ती रसेने रसोपमाम् । एवं रूप रसाम् चापि कृष्णा कपोति माविशेत् ॥ कौशिक सरितं तीर्त्वा संजयानयास्तु पूर्वतः । शिति प्रदेशी बाल्मिके राचितो योजन प्रयम् । विज्ञेया तंत्र कापोति श्वेता वाल्मिक मुर्धतु ॥ [कापोति प्राप्ति स्थान सुत] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] कपोतक-सासार (जै० सं० ४३ ) । कपोत वेगा:बाह्मी कपोत परणा = नालुका कपोत पुट = पाठ कपोत बंका - ब्रह्मा, सूर्यफुल्ली कपोत वर्णा = लायची, नालुका कपोत सार - सुर्ख सुरमा कपोतांघी - नलिका कपोतांजन = हरा सुरमा कपोतांडोपम फल = निंबु भेद कपोतिका - सफेद कोला (निघण्टुरत्नाकर जै० मा० प्र० ० ४३ ) पारावते तु साराम्लो, रक्तमालः परावतः । मा खेतः सार फलो, महापरावतो महान् ।।१३६॥ कपोताण्ड तुल्य फलो ॥१४०।। मभिधान संग्रह निषष्ट्] कापोत = सज्जी खार [भाव० प्र० निषष्ट] पारापतपदी = माल कांगनी कपोत परणा= नलिका पारापत पदी = काकपा भा० प्र० निघंटु] उपरोक्त शब्दों के पर्व से 'कपोत' शब्द की 'बनस्पति में पापकता पूर्णतः सष्ट हो जाती है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१] कोत का सोवा पर्य है एक प्रकार को वनस्पति, पारोस पीपल, सफेद कुम्हड़ा ( पेठा) मोर कबूतर । इनका वर्णन वैचक प्रन्यों में इस प्रकार हुमा है । (i) पारापत के गुण दोष पारापतं सुमधुरं रुच्यमत्यग्निवातनुत् ( सुश्रुत संहिता) (ii) पारिसपीपल, गजदंड के गुण दोष पारिशो दुर्जर: स्निग्ष. कृमिशुक्रकफ प्रदः ॥५॥ फलेऽम्लो मधुरो मूलो, कषाय स्वादुः मजकः ॥६॥ (भाव प्रकाश वटादि वर्ग) (iii) कोला, कोहडा, पेठा, खबहा, काशीफल के गुण दोष पित्त तेषु कुमार बालं मध्यं कापहम्, मुक्त सप्र्ण समारं रोपनं रस्ति सोचनम् ॥२१॥ सर्व रोपहरं हवं पर्वो तो विकार माम् ॥२१॥ पेठा मल, बीपक बस्ति शोषक और सर्वोषहर है (तत स. १६ ) पोषनं रतपित्त विनं मन स्तम्भकरं परम् ॥ ( छोटा कोला पाही, शीतल, रक्त-पित्त नाशक तथा लरोधक है) कुमार मीतलं पूर्व स्वातु पारतं गुरू। रतस्थानाननं बात क्ति बित् ॥ मा सात राब सोका निल बाह हारि॥ (कोला-शीतल, पित्तनाशक, ज्वर, मामदाह को शांत करने वाला है) (कयदेव निपट) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२] मुलायंस्थात् पुण्यात पीतपुष्पम् पहत्कलम् ॥५३॥ पुमा पहलं वृष्यं गुरु पित्तास्त्र वातानुत् । गान पितामहं नीतं मध्यमं कफकारकम् ॥५॥ पर नाति हिमं स्वादु समारं दीपनं सषु । बस्ति मुखिकर चेतो रोग हसर्व गोपवित् ॥५५॥ सुष्माया तुम लम्बी, फर्कात रपि कीर्तिता। कर पाहिली शीता रत-पित्त-हार गुरुः ॥५६॥ पाnिiliL नी, सखारा कक पातनूत् ॥१७॥ ( कोला-पित्तरक्त पोर वायुदोष नाशक है । छोटा कोला पित्तनाशक, शीतल प्रौर कफ-जनक है। बड़ा कोला उष्ण, मीठा, दीपक, बास्ति-शुद्धि कारक, हृदयरोग नाशक तथा सर्वदोषहारी है। छोटा कोला ग्राह्य, शीतल, रक्तपित्त दोष नाशक और पक्का हो तो पग्नि वर्धक है ) ( भाव प्रकाश निघण्टु-शाक वर्ग ) मांस के गुण पोर दोषलिप रज गुरू तपित्त नगर बात हरं॥ सर्व मास बात विसि पृथ्वं ॥ मांस रक्त व्याधियों तथा पित्तविकारों को बढ़ाने वाला है भव यदि महावीर स्वामी के दाहरोग पर विचार किया जाय तो यह बात निर्विवाद सिद्ध हो जाती है कि कपोतपक्षी का मांस रोग का निवारण नहीं कर सकता। इसमें कपोत बनस्पति, पारिस तथा कोलाफल मादि अत्यधिक उपयोगी है। साप साप यह तथ्य भी सिद्ध हो जाता है कि रेवती Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३] श्राविका के पास जो 'दुवे कवोय सरीरा' थे वह कोई पक्षी नहीं वरन कोला ही थे । भगवती सूत्र के प्राचीन चूर्णीकार तथा टीकाकारों ने भी उक्त पाठ का अर्थ 'कुष्माण्ड' फल ही लगाया है । यथा कपोतक: पक्षी विशेष: तह पे फले वर्णसाधम्र्म्यात् ते कपोतेपांडे हस् कपोते कपोतके ते च ते शरीरे बनस्पति जीव देहत्वात् कपोत शरीरे । प्रववा कपोतक शरीरे इव धूसरवर्ण साधम्यदेिव कपोतक शरीरे -- कुडमाण्ड फले एव । ते उपस्कृते संस्कृते । तेहिनो अट्ठोति बहुपायत्वात् । [ रंग की समता के कारण कुष्मांड फल को ही कपोत नाम से पुकारा जाता है । रेवती श्राविका ने उनको संस्कार देकर रख छोड़े थे । ) ( प्रा० प्रभयदेव सूरि कृत भगवतीसूत्र टोका पू० ६६१ ) ( प्रा० श्री दान शेखर सूरि कृत भ० टीका पू० ) कुष्माण्ड फल का मुरब्बा दाह प्रादि रोगों को शांत करता है, प्राज भी यह बान ज्यों की त्यों खरी उतरती है । प्राज भी प्रागरा प्रादि स्थानों पर कुष्माण्ड का मुरब्बा, पेठा इत्यादि ग्रीष्म ऋतु में अधिक प्रयोग किया जाता है । मेरठ जिले में भी सफेद कुम्हड़ा जिसका दूसरा नाम कवेलापेठा इत्यादि है, उन्हें तैयार करने में बहुत प्रयोग किया जाता है । सारांश यह है कि कुष्मांड का मुरब्बा, पेठा, पाक प्रादि गर्मी को शांत करने वाले हैं। और रेवती श्राविका ने भी भगवान महावीर के दाह रोग की शांति के लिये 'दुवे कवोय सरीरा' प्रर्थात् कुष्माण्ड फल का मुरब्बा बना कर रखा था। यहाँ 'कवोय' शब्द कुष्मांड फल का ही द्योतक है । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] (३) सरीरा 'सरीरा' शब्द कवोय से निष्पन पुलिंग वाले द्रव्य का घोतक है । यदि यहां 'सरिराणि' शब्द का प्रयोग होता तो इसका अर्थ 'पक्षी शरीर पर भी करना पड़ता क्योंकि नपुंसक शरीर शब्द ही शरीर या मुरदे के प्रर्य में माता है, किन्तु शास्त्राकार को वह भी अभीष्ट नहीं था। प्रतः उसने यहां 'शरिराणि' का प्रयोग नही किया है । शास्त्रकार ने यहां पुलिंग में 'शरोरा' शब्द का प्रयोग किया है और उसका पर्थ मुरम्बा या पाक ही है। पुलिंग का प्रयोग होने के कारण ही इतना प्रर्ण भेद हो जाता है। प्रागे पाने वाला पुलिग शब्द 'भन्ने' भी इस मत की पुष्टि करता है। दूसरी बात यह है कि मांस के लिये सीधे जाति-वाचक शब्द ही प्रयुक्त होते है। उनके साथ 'शरीर' शब्द नहीं लगाया जाता । “विपाकसत्र" में मांसाहार का वर्णन है मगर किसी जातिवाचक संज्ञा के माथ शरीर शब्द का प्रयोग नहीं हुमा है। हां, बनस्पति के साथ 'काय' शब्द मिलता है। यपा-'वनस्पति-काय' जिसका अर्थ है वनस्पति रूप, वनस्पति शरीर ऐसा । वास्तव में सरीरा शब्द वनस्पति के साप उचित संगति पाता है। प्रस्तुत पाठ में कबोय के साप जो सरीरा शब्द है वह यहां विशेष्य के रूप में ही है। इसलिये यह बात निश्चित है कि यहां सरीरा शब्द का पर्थ मुरमा या पाक ही है । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५] तोसरी विचारणीय बात यह है कि 'कबोय सरीरा' के पूर्व 'दुवे' शब्द का प्रयोग कर उनकी संस्था बताई गई है। . यदि मांस की मोर संकेत होता तो टुकड़ों का बोध करने वाले शब्द विद्यमान होने चाहिए ये किन्तु यहां टुकड़ों का कोई प्रसंग नहीं है। इस कारण मुरब्बे का बोष होना ही युक्ति संगत है। सारांश यह है कि यहां 'सरीरा' शब्ब मुरम्बे के लिये तथा 'दुवे कवोय सरीरा' शब्द 'दो कुष्मांड के मुरबे के लिये ही लिखे गये हैं। (४) उवाडया 'उवक्खडिया' शब्द पुलिग में है तथा संस्कार का सूचक है। उपासक दशांग पौर विपाक सूत्र प्रादि जिनागमों में मांस के लिये "मज्जिये," "तलिए" शब्दों का प्रयोग हुमा है, 'उवक्खडिया' का नहीं । भगवती सूत्र में भी प्रशस्त भोजन के लिये ही 'उवक्खडिया' शब्द प्रयोग में पाया है। इसका माशय यह है कि मांस के संस्कारों में 'उवक्सरिया' शब्द प्रयोग में नहीं पाता । प्रस्तुत स्थान में जो 'उपपला।' का प्रयोग हुआ है वह भी 'कवोय-सरीरा' के प्रकुष्माण्ड का पाक होने का ही अनुमोदन करता है। (५) नो महो 'नो अट्ठो' शब्द निषेध के लिये है। रेवती श्राविका ने भगवान् महावीर के निमित्त कुष्मांड पाक बना कर रखा था, किन्तु 'निमित्तदोष' लग जाने के कारण भगवान् ने श्री सिंह शनि को उसे न लाने का निर्देश किया। जहां Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६] 'निमित्त-दोष' वाला पाहार ग्रहण करना भी निषिद्ध है, वहां मांसा हार की बात मानना तो दुस्साहस ही है। (६) 'भन्ने भन्ने शब्द 'कुक्कुर मंसए' का सर्वनाम है और इसका पर्य है पन्य । 'अन्ने,' 'कवोय-सरीरा' एवं 'कुक्कुड मंसए' तीनों शब्द पुल्लिग में है । पुल्लिङ्ग होने के कारण वे वनस्पति विशेष के ही परिचायक है, 'प्रन्ने' शब्द से यही प्रमाणित होता है। (७) पारियासिए पारियासिए शब्द बिजौरा पाक का विशेषण है । इसका पर्य होता है प्रषिक पुराना [ अधिक समय का] ___एक दिन की बासी वस्तु के लिये 'पारियासि'' शब्द का प्रयोग नहीं बल्कि 'पज्जुसिए' का प्रयोग होता है । ऐसी स्थिति में यदि यहां किसी भी प्रकार के मांस का उल्लेख होता तो यथानुकूल 'पम्जुसिये' शब्द का प्रयोग होना चाहिये पा किन्तु यहाँ तो मांस का प्रसंग ही ठीक नहीं बैठता, क्यों कि बासी मांस तो रोग की वृद्धि करता है और इसको दाह रोग के निवारणार्थ व्यवहार में लिया जाय यह बात मानी ही नहीं जा सकती। प्रतः 'पारियासिए' का विशेष्य मांस नहीं है यह निर्विवाद कहा जा सकता है। इस स्थान में 'पत्वि' शब्द के साथ 'उवासडिया' अथवा 'मज्जिए' शब्द प्रयुक्त नहीं हुए हैं। इस कारण वह वस्तु मांस नहीं है वरन् लम्बे समय तक रहने वाली कोई वस्तु है पर्वात् एक प्रकार का पाक है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७] पहचासत्र में अधिक काल तक टिकने वाले पदार्थ घी, तेल मादि-के सम्बन्ध में पारियासिका प्रयोग हुमा है । इस हिसाब से यहां पुराना [विजोरा पाक] के पर्थ में "पारियासिए' शब्द का प्रयोग सर्वथा उचित है पौर युक्ति युक्त भी। (८) मज्जार मज्जार पदार्थों में शीतलता को भावना या पुट देने के लिये प्रयुक्त होने वाली वस्तु है । जिसका प्रभाव गर्मी (उष्णता, दाह) इत्यादि रोगों को शांत करने में उपयोगी है मजार का संस्कृत पर्याय 'मार्जार' होता है। मार्जार और मार्जार से बने हुए कतिपय शब्दों का पर्थ भिन्न होता है। यथा मार्जार = अन्भसह-बोयाण-हरितग-बुलेन-तणबत्युल,-चोरग, 'मंजार' पोई-चिल्लीया, एक प्रकार की वनस्पति, भाजी-भगवती मूत्र शतक-२१] मार्जार - वत्युल, पोरग, “मज्जार" गोइतल्ला, पालक्का । एक प्रकार की वनस्पति ।. [पन्नवणा सूत पद १ हरित विभाग] मार्जार-विरालिकाऽभिधानो वनस्पति विशेषः । (भगवती श. १५ टीका) विवारी वन विवारी पोरविवारी । पाविधिना या नवनि विगलित Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८] विगलिका = एक प्रकार को पौषधि। . (बालक सूत्र म. ५ उ० २ गा० १८) विगलिका = एक प्रकार की पौषधि । (प्राचारंग सूत्र सू० ४५ पृ० ३४८) विगलिका = वृक्षपणी -(० स० श्री हेमचन्द्र सूरि कृत निघण्टु संग्रह) विगलिका = स्त्री, भूमि, कूष्मांडे, पेठा, भोंय कोला। -(वैद्यक शब्द सिन्धु ) विराली = एक तरह की बेल । -(पन्नवणा सूत्र वल्ली पद १ गा० ४४) विगली = स्त्री, भूमि, कुष्मांडे, पेठा, भुयकोला । -(शब्दाचं चिन्तामणि कोष) मांजार - रक्त चित्रक। मार = वायुविशेष। बिल्ली = बनस्पति विशेष । (पनवणा प० १ गा० १६-३७) मार-मार्जारः स्यात् खटवांश-विडालयोः, खट्टी वस्तु ...की हेलरी सहेली बनेका मान माता। taeसिन्धुन पर्व प्रहाल-४.० १२ १९२७) मारि : इगुण, तापस, तरु मार्जार । इन्दुगी का पेड़ जिसके तेल में बिजीरा चंब हरडे वगैरह तले जाते है। [-हेमी निषष्ट संग्रह Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९ ] मार्जार = बिडाल । मार्जारी, मार्जारिका, मार्जारांष मुख्या = कस्तूरी । मार्जारगन्धा, मार्जार गन्धिका एक प्रकार हरिण 1 - [ श्री जैन सत्य प्रकाश व० ४ ० ७ ० ४३ ] उपरोक्त शब्द भौर इनके अर्थ से 'मार्जार की वनस्पति वर्ग में व्यापकता का पूर्ण परिचय मिल जाता है । अब यदि भगवान् महावीर के दाहरोग के विषय में विचार किया जाय तो यह स्वीकार करना होगा कि इस में बिडाल की तो कोई उपयोगिता ही नहीं है। इसके विपरीत मार्जार वनस्पति खटवॉश या तेल लाभदायक है । इस प्रकार उक्त रोग पर मार्जार वनस्पति खटांवश या तेल की भावना बाली प्रौषधि ही उपचार स्वरुप दी गई थी। क्योंकि दाह रोगों में खटाई प्रादि उपयोगी है। रोग में मार्जार नामक वायु विकार विद्यमान था । इस विकार की शांति के लिये जो संस्कार दिया जाय वह 'मर्जार कृत' कहलाता है, इस प्रकार यहां मार्जार का अर्थ वायु भी है । भगवती सूत्र के प्राचीन aai ने भी इस शब्द का अर्थ बायु तथा वनस्पति ही लगाया है यथा - मार्जारो वायुविशेषः तदुक्तमाय कृतमु-मार्यारकृतम् ॥ घरे स्वाह: - मार्जारो विडालिकाभियानों वनस्पतिविशेयः तेन कु भाषितं बद् तत् । [ प्रा० मी प्रभवदेवतुरिटीका पत्र- ६८१ R धर्षात् मार्जार वायु को दबाने के लिये जो भीषण संस्कार दिया जाय वह 'मार्जार कृत' माना जाता है और मर्जार, Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [..] अर्थात् पिडालिक नामक वनस्पति, से जो संस्कार किया जाय यह भी 'मार्जार कृत' माना जाता है। इस सब व्याख्या का प्राशय यह है कि यहाँ 'मार्जार' शब्द वनस्पति का घोतक है। (8) कड़ए कड़ए शल पुल्लिग है, संस्कार का सूचक है, 'मार्जार' शब्द से सम्बट है तथा 'मंमए' का विशेषण है। इसका संस्कृत पर्याय 'कृतक:' है। ___यदि यहाँ हड़य, हए, वहिए प्रादि शब्दों का प्रयोग होता तो इसका अर्थ विडाल न से मारा हुमा' भी निकल सकता पा परन्तु यहाँ 'कड़ए' का प्रयोग हुपा है जिसका अर्थ है 'मारजार से वासित भावित' पर्थात् 'संस्कारित'। इसके पतिरिक्त विडाल कुका को मारकर छोड़ दे, ऐसी अस्पृश्य तथा पृणित वस्तु को रेवती श्राविका उठाले तथा दाह रोग में उसका प्रयोग उचित मान लिया जाय यह सब मान्यताए मप्रसांगिक, वास्तविकता से दूर तथा कपोल कल्पित जंचती है। मोर फिर 'मंसए' और 'कडए' का पुलिंग प्रयोग भी 'मास' का पक्षपोषण नहीं करता तथा इस मान्यता को निरा. चार बना देता है। पौषषि विज्ञान में संस्कारित वस्तुषों के लिये 'दधिकृत', 'राजीकत', 'माजात' इत्यादि का प्रयोग होता है जिसका पर्ष यही से संरत, राई से संस्कारित तथा विगाल। (पौषषि) से संस्कारित होता है । तात्पर्य यह है कि यहां Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१] 'कडाए' का अर्थ 'संस्कारित' मोर 'मार्जार काए' का पर्ण मार्जार बनस्पति से संस्कारित (भावना वाला) ठीक बैठता 'कुक्कुर' एक प्रकार को खाद्य वनस्पति है जो कि बहुत दिनों तक टिक सकती है। इसके सेवन से गर्मी, रक्तदोष, पितज्वर, प्रामातिसार मादि रोग शान्त होते है इसका संस्कृत पर्याय 'कुक्कुट' है। कुक्कुट के कतिपय तद्भव शब्द तथा उनके पर्थ उदाहरणार्थ हम नीचे प्रस्तुत करते है : पुर-भीगारकाितिय वितन्तुः कुकुरः शितिः । श्रीवारक, चतुष्त्री- (हेमी निघण्टु संग्रह ) पुमटी-कुक्कुटी, पूरली, रसकुतुमा, पुणवल्लभी। पूरणी वनस्पति- (हेमी निघण्टु संग्रह ) पुगपुर-मितिमारः सितिबरः स्वस्तिक निपलकः ॥२६॥ धीपारका विषयः, पर्णकः पुटः शिनी । पारीलामः पातुन तीरित १०॥ मागे जनाविन्त बतुनीति चोच्यते । मर्थ:-चउपत्तिया-भाजी-वनस्पति । (भाव प्रकाश निषष्ट्र, गाकवर्ग शालिग्राम निषष्टु भूषण शाक वर्ग ) मर- सात्मनियो- [tamang] कुमकुट - विजीरा [भगवती सूत्र टीका] गाली-गी. मानुन्नरविवीत, [सम लिनुरोग Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२] सत्यभामा पौर मामा-इनदोनों शब्दों का एक ही प्रचं है। इसी प्रकार मधुकुक्कुट और कुक्कुट भी समानार्थ हैं। कुक्कुट = घास का उल्का, माग की चिंगारी, शूद्र और निषादण की वर्णसंकर प्रजा। '-(जै० स० प्र०व० ४५०७ २०४३) कुक्कुट = (१) कोषंडे (२) कुरडु (३) सांवरी। इसके अतिरिक्त कुक्कुट पादप, कुक्कुट पादी, कुक्कुट पुट, कुक्कुट पेरक, कुक्कुट मंजरी, कुक्कुट मर्दका, कुक्कुट मस्तक, कुक्कुट शिख, कुक्कुटा, कुक्कुटांड, कुक्कुटा-भकुक्कुटी, कुक्कुटोरग मादि वैचक शब्द है। -( निघण्टु रत्नाकर, जै० स० प्र० क० ४३ ) कुक्कुट - मुर्गा, वतकमुर्गा । उपरोक्त शब्दों से स्पष्ट है कि 'कुक्कुट' शब्द वनस्पति में बहु व्यापक है। वैवक ग्रन्थों में कुक्कुट वनस्पति यानि 'चउपत्तिया भाजी' तथा 'विजोरा' के गुण दोष का वर्णन निम्न प्रकार हुमा है। (१) चउपत्तिया भाजीमुनिपतो हिमो नाही, मोह दोष पायावहो ॥९॥ परिवाही नः स्वादः पायो मा बीपकः ॥ यो पो सात साल परत ॥३२॥ पति सुनिषण्ण शीतल, विपिनासकदाहशामक, सुपाच्य, दीपक और ज्वरक्षामक है। -(भावमित्र कत भावप्रकाश निषष्ट्र, शाक वर्ग) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३३] पारापत फल का गुण भी दाह नाशक, ज्वर नाशक व शीतल बताया है। ___ चौरसिय भाजी दाह नाशक, घरहरी, शीतल व मल शोधक है। ___ खटारा--भाजीनां शाक दही "नाखीने खाटां करवानो रिवार जापी तो छ । एटले वटाशनी जग्याए दही लइए तो भाड़ाना रोगमा प्रत्यंत फायदा कारक छ । प्रावो रोते पा चोजो प्रभु महावीर स्वामी ना रोगनी दृष्टिए उपयोगी छ। __-(महो० काशीविश्वनाथ प्रहलाद जो व्याम, साहित्याचार्य, काव्य साहित्य विशारद, मीमामा-भास्त्री, एल०ए०एम. लिखित शास्त्रीय खुलासो, जैनधर्म प्रकाश पु० ५४ प० १२ पृ० ४२७) (२) बिजोग-- स्वास काला चिहरं सम्मान सोचनम् ॥१४॥ नवम्तं गोपनं हवं मातुनमानुपातम् ॥ वा तिता दुर्गरा तस्य, बात निकलापहा ॥१ven स्वातु नीतं गुरु स्निग्ध, मांस : तपित्तावत् ।। मेयं भूनानिलवि- रोचना ॥१०॥ रोक्नं मा संपाहि, गुल्मानानं तु सरम् ॥ भूमानिनविय malfare ॥१५१५ मन्त्री पवित्र मानेऽनो कमाते । विजोरा-गष्णा शामक, कण्ठ शोधक, तथा दीपक है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४] विजीरा का मांस (गूदा) शीतल, वायुहर तथा पित्तहर है । -(सुश्रुत संहिता) ला लियापनका स्निया, मानस्य पातजित् ॥ हलं मधुरं मासं, पातपितहरं गुरु ॥ बिजीरा का मांस (गदा)-पौष्टिक, मधुर, वानहर प्रौर पित्तहर है। (वाम्भट्ट) गोजपुरो मातुनु यो पासपूरकः ।। बीबपुरक वायु, रसे प्रल रोपनंग ॥११॥ रस्ततिहरं -बोस व सोपान । बात कामा प्रचार सप्ताहरं स्मृतम् ॥१३२॥ योगगुरो प्रल प्रोतो परो ममी । मधुकर्कटिका स्थी रोचनी शीतला गुरुः ॥१३३॥ रक्तपित्त मप यास कास हिला भमा हा ॥१४॥ विवोरासक्ति नामक है, कच्छजिव्हा-हदय शोषक है, श्वास कास तथापिका मन करता है व तम्बाहर है। मा विजोत पीतल तथा रक्तपित नासक है। -भाव प्रकार मिण्टु फल वर्ग ) मुर्नेकन मांस उन्मवीर्य है। यह वह को बढ़ाने वाला है। -(पुट संहिता) उक्त बातों को दृष्टि में रसपर विसार किया वाय तो यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि वहाँ रोग निवारणार्थ मुर्गे का प्रयोग युक्ति संगत नहीं है तवा स्पिति के सर्वचा प्रतिकूल Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] पना है 'चउ पत्तिया भाजी' मोर बिजोरा' ही उपयोगी है। प्रतः रेवती श्राविका के घर में जो 'कुक्कुर मांसक' पा बह बिजोरा-पाक के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हो सकता । यथामा . -- - -मारिपरे बाबा विनिमणिपालो पनि यि भावित बालविवाह माना टाईपाहराहिति निरल्यस्यात् पतगं मोएति पाप पोपिने ति सिल्के मरिक्त सत् तस्मावतारपतीत्यर्षः । (प्रा० श्री प्रमयदेवमूरि कृत भगवती टीका १० ६६१) (प्रा० श्री दानशेम्बर मूरि कृत भ० टीका) प्रागय यह है कि 'बिजोग पाक' को ही 'कुक्कुटमासक' की संज्ञा मिली है और यही (विजीरा पाक ही) रेवती माविका के वहां तैयार था। (११) मंसए 'मंमए' गन्द बिजौरा से निप्पन्न, पुलिया द्रस्य का घोतक है। इमका संस्कृत पर्याय 'मासक' होता है। मांस मामक और उसके नद्भव गब्दों का प्रर्ष इस प्रकार है। मांस (नपुमक लिग) गुदा, फलगर्म, फांक मांसक ( पुस्निग ) पाक, गुदा मांस ( नमकनिम ) मांस, गर्भ मांस फला (स्थी निम) जटामांसी भूत जटा, बालम वनस्पति । -भाव प्रकाश निषष्ट, कपुरादि वर्ष श्लो. ८६] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३६ माम फल [स्त्रीलिंग मांमामिव कोमलं फलं यम्या: । वया, बैंगन, भाटा -[शब्द स्तोम महानिधि], रक्त बीज,-मूंगफली-भाव प्रकाश पारिभाषक शब्द माला] इन प्रयों से यह सिद्ध होता है कि मांस गब्द मांस का पोतक है तथा फल के गर्भ का भी घोतक है किन्तु मांसक: शब्द से तो पाक का ही बोध होता है। और यदि भगवान् महावीर के दाह-ज्वर रोग के संदर्भ में इस शब्द पर विचार किया जाय तो भी मांस का अर्थ पाक ही उचित बैठना है। देखिये - (१) स्निपर गुरु रक्तपित्तजनक पातहरं मांस। सर्व मासंपता: सिष्यं ॥ मुर्गे का मांस ऊष्ण वोर्य है। प्रतः यहाँ माम का प्रयोग मर्वथा निषिद्ध हो माना जाता है । (२) प्राचीन समय में फलगर्भ और बीज के लिये क्रमशः मांस और अस्थि का प्रयोग किया जाता था। जिनागमों तथा वैद्यक ग्रंथों से इस कथन के सम्बन्ध में अनेक उदरण उपलब्ध हो सकते है जैसे विएट स-सकलाई एपाई हन्ति एष बोबस्त ॥ टीका-पन्त सनसकहा ति-समति सनिरं तवा टाह एतानि नीति एकस्य श्रीवस्व पति-चालान एतानि नीलि भवन्तीत्वः॥ -(श्री पन्नावना सूत्र पद १ सू० २५ पृ० ३६-३७) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७ ] से कितं रुपमा ? असा दुविहा परता, तं नहा-एगडिया य गोषणाप से कितं एगड़िया? एट्ठिया प्रगविहा पत्ता, संजहा निसकोस, नाल अंकोल पीलु सेतू च । सल्ला मोया मानुष, बउल पलाते करंबे य ॥१२॥ पुतंजीवय रितु, विभेलए हरिएए म भिलाए । बैभरिया बोरिणि, बोपचे पाय पियाले ॥१३॥ पुइस निब करंजे, सुन्हा तह सोसबा प असणे य । पुष्पाप लाग रुको, सिरियाली तहा प्रसोगेय ॥१४॥ बेवावपले तहप्पगारा। एएसि वं मूला विप्रलिज जीषिया, कंग विषा मिता विसाला पिरावि, पता पोग्बीविया, पुष्पा पलंगजीविया, फला एगडिया ॥ से सं एनटुपा॥ (पन्नवणा मू० पद० १ सू० २३ पृ० ३१, जोवाभिगम सूत्र, प्रति १ सूत्र २० पृ. २६) "त्वक" तिक्ता पूर्वरा तस्प बातकामाफोप,। स्वादु शीतं गुरु स्निग्धं "मांस" मारतपित्तजित ।। (सुश्रुत संहिता) 'त्व' तिक्तकटका स्निग्धा मातुल्गस्य पातमित् । ग्रहणं मपरं "मास" वातपित्त-हरं गुरु ॥ (सुश्रुत संहिता) पूतना सिमती सूमा कपिता मांसला मृता ।।८।। (भाव प्रकाश निघण्टु रितक्यादि वर्ग) मांस फल = बैंगन (शब्द स्तोम महानिधि) इस प्रकार माम का अर्थ गूदा भी होता है। मपुंसक लिंग वाला 'मांस' शब्द ही 'मांस वाचक है। किन्तु पुलिंग शब्द मांस वाचक नहीं है । यहाँ तो मांस शब्द पुल्लिग में Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८) है। कोई पंडितंमन्य भाषा शास्त्री प्रमित तथा त्रुटिपूर्ण पर्यन कर बैठे, ऐसी सम्भावना की ही पावृत्ति रोकने के लिये यहां स्पष्टतः पुल्मिन का प्रयोग किया गया है। इस पर भी कोई यहां इस शब्द का प्रर्ष मांम से लगाये तो इसको मनमानी ही कहा जायगा । तथ्य यह है कि पुल्लिग होने के कारण यहां 'मॉम' का अर्थ मांस नहीं, बल्कि 'पाक' है । भगवती सूत्र के प्राचीन चूर्णीकार व टीकाकारों ने भी 'कुक्कुट मांसक बीज पुरकं फटाह' लिखकर 'मांस' का पर्ष 'पाक' होने की पुष्टि की है। अन्याय तीसरा पिछले दो अध्यायों में हमने काल परिस्थिति, प्रर्थ पद्धति नया प्रौषध विज्ञान को प्राधार मान कर विवादास्पद पाठ की विशाद ग्याल्या की है। हम यहां स्पष्ट कर देना चाहते है यदि इन विचार बिन्दुमों की स्थापना किये बिना हम किसी पाठ का पर्थ लगा ले तो उस में प्रशुद्धि रह जाने की सम्भावना है। ऐसी ही पशुद्धि भगक्ती सूत्र में उल्लिखित भगवान महावीर द्वारा रुग्णावस्था में प्रौषध-मिक्षा सम्बन्धित पाठ का प्रपं करते समय हो गई है। हम पाठ पोर उसका ठीक पर्ष नीचे दे रहे हैं :___सत्य रेल्ती माहापालिए मम हाए दुवे कनोयसरीरा , तेहिं को अट्ठो । मलि से भन्ने परिष मन्सार नए महासए उपाइराहि संभो । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [] प्रर्य-गाथापति की पन्नी रेवती ने वहां मेरे निमित्त दो कुष्माडपाक बना कर रखे है । वह काम के नहीं है । किन्तु उसके वहां दूसरा विशेष पुराना और विराली वनस्पति की भावना बाला बिजीरे का पाक है। उसे ले भाभो वह काम का है । ऊपर के पाठ में प्राणीवाचक प्रौपषि के स्वरूप की व्याख्या की गई है। एक पाठ विशेष पर ही वह निर्धारित बिचारबिन्दु लागू होते हो, ऐसी बात नहीं है। ऐसे कई उद्धरण उशहणावं प्रस्तुत किये जा सकते है कि जहां प्राणीवाचक शब्द प्रविधि स्वरूप प्रयुक्त हुए है भौर यदि उनका प्रथं उपरो तौर (Face Value) पर किया जाय तो हास्यास्पद तथा भ्रमात्मक (Mis Irading ) हो जायगा । यथा ब्रह्माणं चक्रपाणिं कुसुमशररिपु ं वैष्णवं पेशयित्वा क्षीरेणाज्येन सम्यक् समघृतमधुना लेपयेत् तां शिलां च लिप्ता क्लिया समस्ताद् भवति यदि शिला प्रापिता चेकरा जानिया तत्र गर्ने फणिपतिरथवा वृश्चिको वाथ गांधा । ३२ । अनन्तशवनम् संस्कृत ग्रन्थावली का ग्रंथांक ७५ त्रिवेन्द्रम् का कुमार मुनि कृत शिल्परत्न भा० १ ० १४ श्लो० ३२ । Apply to the Agent for the sale of Government Sanskrit Publication Triveudrum. उक्त श्लोक कुमार मुनि के शिल्परत्नग्रंथ में प्राया है भीर इसमें उन्होंने विचित्र शब्दों से जीव-विज्ञान बताया है। इस श्लोक का अर्थ करते समय बड़े से बड़ा शास्त्रपारंगत भी विचार Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४० ] में पड़ जायेगा तथा बड़े से बड़ा न्यायालय भी इस पर निर्णय देता हुआ 'किंकर्तव्यविमूढ़' हो जायगा क्योंकि स्थूल बुद्धि वाला तो व्यक्ति तत्काल इस का अर्थ 'ब्राह्मण, कृष्ण, कामदेव व विष्णु को पीसकर इत्यादि ही करेगा। परन्तु जीव-विज्ञान व निघण्टु प्रादि शास्त्रों का प्राधार लेकर इसका वास्तविक अर्थ किया जा सकता है । इस प्रकार हमारी व्याख्या के प्रकाश में यह निःसंकोच कहा जा सकता कि भगवान महावीर ने प्रौषधि - स्वरूप मांसाहार का प्रयोग नही किया। उन्होंने बिजौरा पाक का सेवन किया था जिससे उनका रोगदाह शांत हुआ । यो विश्व वेद विसं जनम बलनिषे अंगिन पारवृश्वा । पोपट दि वचनमपमं निध्य संकं यदीयम् ॥ सं बड़े साधुबन्धं सकल गरणनिधि ध्वस्त बोबहिषं त । मुज्यं वा वर्द्धमार्ग शतवसनिलवं केशवं वा शिवं वा ॥ ( कलिकाल सर्वज्ञ प्राचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि ) ।। जयउ जिविंद बर सासबथः ॥ (समाप्त) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- _