Book Title: Bane Arham
Author(s): Alka Sankhla
Publisher: Dipchand Sankhla

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Page 15
________________ भगवान महावीर ने स्थानांग सूत्र में इन्ही दो दिशाओं का महत्त्व बताया है। पूर्व दिशा उदय मार्ग और तेजस्विता का प्रतीक है। उत्तर दिशा उच्चता एवं दृढ़ता का प्रतीक है। ध्रुव दिशा इसी का नाम है। यथा संभव सामायिक में किसी एक ही आसन में बैठना चाहिए। उस समय वेशभूषा सादगी प्रधान हो। आवश्यक उपकरण जैसे आसन, सफेद चद्दर मुखवस्त्रिका, माला, धार्मिक पुस्तकें, पूंजनी वर्ग इत्यादि अपने पास की सचित वस्तएं दूर रखना आवश्यक है। एक मुहुर्त के लिए साधु जीवन स्वीकार करना है तो बाह्य और अंतर की तैयारी जरुरी है। बाह्य तैयारी होने के बाद सामायिक में जरूरी हैं२) अर्थ समझ कर क्रियाएं करें, १) उच्चारण शुद्धि, ३) शरीर तनावमुक्त रखना, ४) एकाग्रता सामायिक में अन्तरंग विधि में मुख्यतः हमें ३२ दोषों से बचना चाहिए। तभी सामायिक निरतिचार हो सकेगी। सामायिक यानी अपने घर आना। घर के बाहर मतलब विषमता, अंदर मतलब समता । सामायिक पाठ के उच्चारण में 'सावज्जं जोगं पच्चक्खामि' यानी सावद्य योग का प्रत्याख्यान किया जाता है। सावद्य= स+ अवध का अर्थ है सहित, अवद्य का अर्थ है पाप, योग का अर्थ है प्रवृत्ति यानी पाप सहित (असत्) प्रवृत्ति को सावद्य योग कहा जाता है। सर्वप्रथम एक आसन का चुनाव करें। जिसमें हम सुखपूर्वक, स्थिरता से अधिक समय बैठ सकते हैं, ऐसा आसन हो। पद्मासन, वज्रासन, सुखासन हे भगवन! मैं सामायिक कर रहा हूँ। इस प्रकार अनुज्ञा के बाद सामायिक पाठ का उच्चारण करके संकल्प ग्रहण करें। सामायिक पाठ का उच्चारण शुद्ध हो अर्थबोध हो और फिर सामायिक शुरू करें। मनोविज्ञान में दो प्रकार के भावों का उल्लेख है। सावद्य योग अर्थात् पापकारी प्रवृत्तियां निरवद्ययोग अर्थात् पापरहित अध्यात्म प्रवृत्तियां मन, वचन और शरीर की सारी प्रवृत्तियां दो प्रकार की होती है। सावद्य और निरवद्य। ये दोनों अवद्य शब्द से बने हैं। अवद्य का मतलब पाप, जो प्रवृत्ति पाप सहित है वह सावध और जो पाप रहित वह निवद्य है। मन, वचन और शरीर की पन्द्रह प्रकार की प्रवृत्तियां हैं। उनमें कुछ सावध, कुछ निरवद्य है। सामायिक में सावध प्रवृत्ति का बने अर्ह भावशुद्धिः परो धर्मस्तयाचारः विशुद्धयति । शुद्धाचार पुनश्चित्ते, कुरुते भावशोधनम् ॥ 6 प्रत्याख्यान होता है। नकारात्म भावों की यह १८ अठारह प्रकार की प्रवृत्तियां है। सामायिक की साधना में सभी नकारात्मक प्रवृत्तियों से दूर रहना होना है। अठारह पापों को चार भागों में विभाजित किया गया है। चार वर्गों में अठारह पाप समाहित हो जाते हैं। (१) वर्ग (२) वर्ग (३) वर्ग प्राणातिपात पाप क्रोध पाप मृषावाद पाप अदत्तादान पाप कलह पाप मान पाप मैथुन पाप परिग्रह पाप माया पाप लोभ पाप अभ्याख्यान पाप पैशुन्य पाप पर परिवार पाप रति - अरति पाप 9. २. (४) वर्ग मायामृषा पाप मिथ्यादर्शनशल्य पाप राग पाप द्वेष पाप सामायिक के 32 दोष सामायिक में आसन, मौन, ध्यान, स्वाध्याय आदि धार्मिक कार्य विशेष किए जाते हैं। यथा संभव किसी एक ही आसन में बैठना चाहिए। सामायिक में ३२ बातें वर्जित हैं। उनका वर्णन यहां प्रस्तुत हैं मन के दस दोष अविवेक- सामायिक करते समय किसी प्रकार का विवेक न रखना। यश कीर्ति यश प्राप्त होगा, आदर बढ़ेगा, लोग धर्मात्मा कहेंगे, मेरी प्रशंसा करेंगे भावना से सामायिक करना। ३. लाभार्थ धन आदि के लाभ की इच्छा से सामायिक करना । ४. गर्व- मैं बहुत सामायिक करने वाला हूँ, मेरे बराबर कौन सामायिक कर सकता है या मैं बड़ा कुलीन हूँ, आदि गर्व करना । भय ऊँचे घराने का होकर भी यदि सामायिक न करूँ तो लोग क्या कहेंगे अथवा - किसी अपराध के कारण मिलने वाले राजदण्ड से एवं देनदारी आदि से बचने के लिए सामायिक ले बैठना । बनें अर्हम् भावशुद्धि उत्कृष्ट धर्म है। उसके द्वारा आचरण शुद्ध होता है। शुद्ध आचारचित के भावों का शोधन करता है।

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