Book Title: Bane Arham
Author(s): Alka Sankhla
Publisher: Dipchand Sankhla

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Page 47
________________ मेरा जीवन ही बदल गया तेरापंथ धर्मसंघ में प्रवेश के बाद तेरापंथ के इस धार्मिक परिवार में मेरी शादी हुई। घर में बड़ी मेरी सासूजी एक अत्यन्त धार्मिक, सरल एवं भद्र महिला थी। उनका जीवन समतामय था। मेरी संसारपक्षीय ननन्दजी साध्वीश्री कनकश्री जी, तेरापंथ धर्मसंघ की परम विदुषी साध्वी, अत्यंत मधुर वाणी और ज्ञान की धनी हैं। जिनकी लेखनी में सरलता और सहजता ही उनका परिचय है। उनकी सेवा का मौका मेरे लिए अनुपम उपहार होता है जिसे शब्द बद्ध करना मेरी क्षमता के बाहर है। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी की नजर मुझ पर पड़ी तो मैं निहाल हो गई। उनका वात्सल्य और करुणामयी दृष्टि पाकर मैं गौरव का अनुभव करने लगी। आचार्य श्री महाप्रज्ञजी की कृपा दृष्टि मिली उसे सिर्फ अनुभव कर सकती हूँ, शब्दों में पकड़ नहीं सकती।गुरुदेव श्री तुलसी का चुम्बकीय व्यक्तित्व, आंखों की चमक, वाणी की मधुरता देखी तो आभास होने लगा कि जिस गुरु की कल्पना एक लम्बे अर्से से थी, पूर्ण हो गई। ममतामयी साध्वी प्रमुखाश्री कनक प्रभाजी के पहले दर्शन ने ही मेरे मन को मोह लिया। मेरे सत्कर्म फलित हुए ऐसा लगने लगा। सभी साधू-साध्वियों का स्नेह और मार्गदर्शन मिलता रहा। तेरापंथ धर्म संघ में ज्ञान का अमूल्य भंडार है। सुंदर और व्यवस्थित साहित्य का खजाना है। मेरी शुरुआत हुई पहली किरण, ज्योति किरण और ज्ञान किरण से। “अमत कलश" के पानी ने तो मेरे जीवन में बहार ही ला दी। फिर न जाने कितनी-कितनी पुस्तकों के ज्ञान की गंगा में बहने लगा मेरा जीवन। गुरुदेव श्री तुलसी के 'अणुव्रत आन्दोलन' का ज्ञान प्राप्त करके तो मैं स्तब्ध सी हो गई। मैं नैतिकता का जीवन तो जी ही रही थी और इसके लिए न जाने मुझे कितने संघर्ष करने पड़े।मैंने सत्य और नैतिकता का जीवन जीया और यहां आने के बाद पता चला कि यही तो अणुव्रती जीवन है, इसी का नाम तो 'अणुव्रत' है। पू. गुरूदेव श्री तुलसी ने अपने मुखारविन्द से फरमाया - तुम अणुव्रत प्रचेता बनो। योग शिक्षिका के साथ प्रेक्षाध्यान का अभ्यास करने की प्रेरणा भी पू. गुरूदेव द्वारा मिली। यही वजह थी कि मैंने जीवन विज्ञान, योग, प्रेक्षाध्यान और जैन विद्या में एम.ए. किया। गुरूदेव श्री तुलसी एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञजी की मुझ पर अत्यंत कृपा रही, जिसके कारण मुझे तेरापंथ की प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण संस्थाओं से जुड़कर काम करने का मौका मिला। अणुव्रत महासमिति और जैन विश्वभारती जैसी प्रमुख संस्थाओं की मैं सदस्या रही। अमृत संसद की सदस्यता के बाद मैंने विकास परिषद में संस्कार निर्माण प्रभारी के रूप में कार्य किया। फिलहाल मैं जैन विश्व भारती विश्व विद्यालय के सूरत विभाग में एम.ए. की प्रशिक्षिका हूँ। अणुव्रत विश्वभारती राजसमन्द की भी सदस्या हूँ। जैन धर्म में मैंने जाना सम्यक दर्शन का विशेष महत्त्व है। आचार्य महाप्रज्ञजी हमेशा कहते हैं, "समस्या नहीं ऐसा जीवन नहीं और समाधान नहीं ऐसी समस्या नहीं। समस्या को देखना जरूरी है और उसके मूल तक पहुँचना चाहिए।" भगवान महावीर ने हमें समस्या की मूलग्राही दृष्टि दी है। मूल को पकड़ो, उसे नष्ट करो, समस्या का समाधान मिलेगा। 'सामायिक' हर समस्या का समाधान है। इसलिए, बिना वक्त गँवाए, अपने आप को जानने के लिए आनंद की अनुभूति के लिए सामायिक शुरू करें। ४८ मिनिट अगर आप नहीं दे सकते तो संवर से शुरुआत करें। कम से कम १० मिनिट अपने आप को दें। धीरे-धीरे आप सामायिक तक पहुँच जाएंगे। सत्यदर्शन बिना कुछ नहीं होगा। इसलिए चाहिए ज्ञान और फिर आचार – ‘पढमं नाणं तओ दया' । आचरण ज्ञान का सार है – 'नाणस्य सारं आयारो'। "आओ हम जीना सीखें" पुस्तक में युवाचार्य महाश्रमणजी ने जीवन जीने की कला जीवन जीने की कला में कुशल कैसे बनें इसके अनेक सूत्र बताएं है। इसमें सबसे पहले उन्होंने बताया है, जीवन के सभी क्रियाओं को सम्यक बनाना, अपना दृष्टिकोण सम्यक् बनाना जरुरी है। इसके लिए आत्म निरीक्षण, आत्म परिक्षण बनें अहम् जगति नियतो मृत्युः, सर्वेषां प्राणिनां कुते। महान्तः पुरुषाश्चापि, नीयन्ते समतलिना ।। बने अहम जगत् में सब प्राणियों के लिए मृत्यु निश्चित है। वह महापुरुषों को भी ले जाती है।

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