Book Title: Bane Arham
Author(s): Alka Sankhla
Publisher: Dipchand Sankhla

View full book text
Previous | Next

Page 46
________________ मैंने प्रथम बार जैन धर्म को जाना, पहचाना, देखा और अनुभव किया 'धार्मिक परीक्षा बोर्ड" अहमदनगर में ... सच बात तो यह है कि जन्म से मैं जैन हूँ पर जैन धर्म का ज्ञान मुझे बहुत देर से हुआ। आज ऐसा लगता है, यह ज्ञान जल्दी होता तो मुझे बहुत कुछ मिलता। आज मैं यही बता रही हूँ कि जैन धर्म को जानना, समझना बहुत आवश्यक है, क्योंकि बड़ा वैज्ञानिक और सटीक है जैन धर्म । मुझे 'अध्ययन' करना तथा ज्ञान लेना अच्छा लगता है। बचपन से ऐसे संस्कार मिले है। अनेक विषयों का अध्ययन करती थी, परंतु जैन धर्म का तलस्पर्शी, सहज, सुलभ और गहराई से ज्ञान कहीं मिल नहीं रहा था। क्योंकि मैं छोटे से गाँव श्रीगोंदा (महाराष्ट्र) में रहती थी। मेरी किस्मत भी अच्छी थी इसलिए पढ़ाई पूरी होते ही नौकरी के लिए मैं अहमदनगर गई थी। वहां कविता, योग, पत्रकारिता ऐसे अनेक क्षेत्रों में काम करते-करते एक दिन अहमदनगर के सबसे पवित्र, सुंदर, मनमोहक जगह से परिचय हो गया था वह था “धार्मिक परीक्षा बोर्ड'। वहा अत्यंत तेजस्वी, ओजस्वी, तपस्वी ओर ज्ञानपुंज - परम वंदनीय आचार्यश्री आनंदऋषिजी के दर्शन हुए। इसी 'आनन्दधाम' ने मेरे जीवन को एक नई दिशा दी। मुझे एक विशेष प्रेरणा मिली और वही मेरे जीवन का टर्निंग प्वाइंट रहा। बनें अर्हम अनित्याः सर्वसंयोगाः, जीवनं चाऽपि नश्वरम् । तत् किमर्थ ममत्तं स्यान् नाशशीलेषु वस्तुषु ॥ 30 जैन धर्म का पहला परिचय, जैन धर्म की ओर आकर्षण बढ़ाने वाले, जैन धर्म जानने हेतु प्रेरित करने वाले, मेरे अंतःकरण को स्पर्श करने वाले अनेक साधु-साध्वियां, वहां का वाचनालय और वातावरण चुंबक की तरह मुझे खींचता था। उस समय में अत्यंत व्यस्त रहती थी। सुबह वकालत का अभ्यास करने कॉलेज जाती, दीन भर नौकरी करती थी। 'योगशिक्षक' थी, इसलिए योग के वर्ग लेने, शिविर के आयोजन करने के साथ पत्रकारिता भी करती थी। जर्नालिज्म (पत्रकारिता) में पढ़ाने भी जाती थी। मैं स्पेश्यल ज्युडिशियल मजिस्ट्रेट भी थी। व्यस्त जीवनशैली के कारण "जैन धर्म" को जानने, समझने और पढ़ने को समय नहीं दे पा रही थी। वहां स्थानकवासी अनेक साध्वियों को जब मालूम पड़ा, मैं “योगशिक्षक" हूँ तो वहां योग वर्ग शुरु कर दिया गया और मेरा सद्भाग्य अथवा कुछ अच्छे कर्म होंगे जिससे मुझे साध्वियों को योग सिखाने का मौका मिला। उस समय मुझे उनसे जो ऊर्जा, प्रेरणा और आशिर्वचन मिलते थे उसे मैं शब्दों में नहीं पकड़ सकती। मेरे अंतःकरण को छूने वाले, दिल को झंकृत करने वाले, मुझे जैनधर्म तक पहुँचाने वाले प.पू. आचार्यश्री आनन्दऋषिजी और वहां के साधु-साध्वियों की मैं ऋणी हूं। वहां का आत्मानंद, अनुभव, वहां के एक-एक क्षण मैं कभी भूल नहीं पाऊँगी। आँखें बंद कर, उन क्षणों का ऐहसास करती हूँ, तो आज भी वे क्षण तरो ताजा हो जाते हैं। इस प्रकार मेरी जैन धर्म के प्रति रुचि बढ़ रही थी। माँ भी हमेशा कहती थी कि, जैन धर्म का अभ्यास क्यों नहीं करती ? माँ का आशीर्वाद, सभी साध्वियों की कृपा दृष्टि से मेरे मन की तमन्ना पूरी हुई शादी के बाद... सबके आशीर्वाद से मेरी शादी ऐसी जगह हो गई, मेरा जीवन सफल हो गया। सबकी मंगलकामना से मुझे तेरापंथ मिला। परम पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी का अत्यन्त धार्मिक और अनुशासित परिवार। जिसने धर्म संघ के दान में दिए बेटे और बेटियां । स्व. मुनिश्री धनराजजी जैसे विद्वान संत साध्वी मोहनकुमारी जैसी विदुषी साध्वी दीक्षित हुई बने और उनके बाद स्व. साध्वीश्री हर्षकुमारीजी का अल्पायु में ही महाप्रयाण हुआ। मेरे दूसरे नणंदजी साध्वी कनकश्रीजी, विदुषी और अत्यंत मधुर भाषी वक्ता के साथ उत्कृष्ट लेखिका भी है। उनके एक-एक गीत और पुस्तक से मैंने जैन धर्म को सहजता से समझा । बनें अर्हम् ७१ सब संयोग अनित्य हैं और जीवन भी नश्वर है। फिर नाथधर्मा वस्तुओं पर समत्व क्यों किया जाए

Loading...

Page Navigation
1 ... 44 45 46 47 48 49