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DD ध्यान का दूसरा चरण - अन्तर्यात्रा
प्रेक्षाध्यान का दूसरा चरण है अतर्यात्रा ध्यान साधना में नाड़ीतंत्र का प्राणशक्ति को विकसित करना आवश्यक है। चेतना की अन्तर्यात्रा से ऊर्जा का प्रवाह या प्राण की गति उर्द्धवागामी होती है।
तेजस्विता, संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास, चेतना का जागरण सामायिक में अंतर्यात्रा का प्रयोग करने से होता है। केवल मुंहपत्ती लगाकर, चादर ओढ़कर पाठ बोलकर ४८ मिनट कब होंगे? यह सोचते सामायिक करोंगे तो, ऐसी सामायिक सफल नहीं होंगी। सामायिक करने पर भी प्रतिक्रिया, निंदा, अशांति और आवेग रहेंगे। इसलिए हमें ३२ दोषों को टालकर प्रमादवश अतिचार-अनाचार हो तो प्रायश्चित पूर्वक शोधन व परिष्कार करना आवश्यक है। इसलिए हमेशा पूनिया श्रावक को याद रखें। कितनी अनमोल सामायिक होती है, यह समझो। अन्तर्यात्रा का प्रयोग करें ऊर्जा का प्रवाह या प्राण की गति उर्द्धवगामी करें।
ध्यान का तीसरा चरण - श्वास प्रेक्षा चित्त को एकाग्र करने का सरल और सक्षम उपाय है - श्वास प्रेक्षा।मन की शांति के लिए, एकाग्रता के लिए श्वास को नियंत्रित करना बहुत जरुरी है। श्वास पर विजय बिना ध्यान नहीं होता और स्वर को जाने बिना सामायिक साधना सहज नहीं होती। क्योंकि जिनका नाड़ीतंत्र संतुलित न हो उसमें समता का विकास संभव नहीं। 'श्वाँस ले रहा हूँ अनुभव करें, श्वासमय हो जाए। इस प्रकार वे श्वाँस की भाव-क्रिया श्वाँस प्रेक्षा है। श्वाँस मन्द, दीर्घ या सूक्ष्म करने से मन शांत होता है। आवेग, आवेश, कषाय और उत्तेजना शान्त होते हैं। श्वास वर्तमान की वास्तविकता है। श्वास को देखने का अर्थ है, समभाव में जीना। रागद्वेष मुक्त जीना।
हमारे दो स्वर होते हैं, दायां और बायां। दायां स्वर सक्रिय होता है तो क्रोध, आवेश, उत्तेजना और आक्रमकता बढ़ती है। बायां स्वर अधिक सक्रिय होने से भय, हीन भावना, निराशा का जन्म होता है। यह विषमता की स्थिति है। समता वहीं होगी जहां संतुलन
होगा। सामायिक में श्वाँस प्रेक्षा, प्राणायाम का अभ्यास ५-१० मिनट तक करें तो, यह प्रयोग अनेक अर्थों से उपयुक्त होगा।
श्वास वास्तविक है, इसलिए सत्य है - वर्तमान की घटना है। श्वास प्रेक्षा करना यानी श्वाँस को देखते हुए सत्य को देखना, वर्तमान में जीने का अभ्यास. श्वाँस को देखना ही समभाव जीना है।
श्वाँस निरंतर चलता है। श्वाँस भीतर लेते समय पेट फूलना चाहिए और श्वास छोड़ते समय पेट सिकोड़ना चाहिए।यौगिक भाषा में हम श्वाँस लेते हैं उसे पूरक कहते हैं। श्वाँस छोड़ने की क्रिया को रेचक कहते हैं और जो श्वाँस रोकते हैं उसे कुंभक कहते हैं। जो अपने आप चलता है, उसे स्वर कहते हैं।
स्वर चक्र से स्वभाव का गहरा संबंध है। इसलिए सामायिक में हमें अपने आपको बदलना है, स्वभाव बदलना है तो, श्वाँस को जानना और उसका अभ्यास करना बहुत जरुरी है।
श्वाँस प्रेक्षा में इसके लिए समवृत्ति श्वाँस का विकास किया गया है। समता जागृति के लिए यह बहुत जरूरी है। धार्मिक जीवन का, सामायिक की आराधना का आत्मा है समता की साधना। जिसे हम स्वर संतुलन के प्रयोग द्वारा सहज प्राप्त कर सकते हैं। चित्त की निर्मलता और एकाग्रता के लिए श्वाँसप्रेक्षा जरुरी है।
श्वाँस दो प्रकार का होता है। सहज और प्रयत्नजन्य। प्रयत्न द्वारा श्वाँस की गति में परिवर्तन किया जा सकता है।छोटे श्वाँस को दीर्घ बनाया जा सकता है।
सच बात तो यह है कि, श्वाँस ही जीवन है। जीवन की प्रत्येक क्रिया श्वास से जुड़ी है। सम्यक श्वाँस सर्वोपरि है। दुर्भाग्यवश इसे ही हम उपेक्षित रखते हैं। बहुत थोड़े लोग होंगे जो सही और पूरा श्वाँस क्या है? जानने का प्रयल करके वैसे ही श्वाँस लेने का अभ्यास करते हैं। गलत तरीके से श्वाँस लेने से अपर्याप्त ऑक्सीजन, दुर्बल स्वास्थ्य, स्नायिविक दुर्बलता और उत्तेजना बढ़ाते हैं। रोगों की प्रतिकार शक्ति में भारी कमी आती है।
इसलिए स्वास्थ्य और समता प्राप्ति के लिए, थकान दूर करके शांति और आनंद की अनुभूति के लिए सामायिक में सहज, मंद, दीर्घ श्वाँस का अभ्यास करना चाहिए।श्वसन की सम्पूर्ण क्रिया करने में जागरुकता की अपेक्षा है।
सेवया वर्धते प्रीलिः, सेवया कर्मणां क्षयः। त या आवसंशतिः, सेवाधर्मः सुखावहः॥
अभा
बन अहम
वाम सुस्वकाश हा जयोति सेवा से परस्पर IN ली है.
कों का नाश होता है और माता का शोफा होता है।