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म संवर म
भिनव सामायिनी
संवर से आश्रव नये कर्मों के प्रवेश का निरोध होता है। संवर मोक्ष साधना में एक अनिवार्य साधन के रूप में सामने आता है। सम्यक् ज्ञान-दर्शन-चारित्र को त्रि-रत्न कहा जाता है। संवर चारित्र है और इस तरह यह उत्तम गुणरत्न है। संवर पदार्थ का स्वरूप- आश्रव दुवार करमा रा बारणा, ढकीया छे संवर दुवार।
आतमा वश कीयां संवर हुओ, ते गुण रतन श्रीकार। आसव-द्वार कर्म आने के द्वार हैं। इन द्वारों को बंद करने पर संवर होते हैं। आत्मा को वश में करने से आत्म-निग्रह से संवर होता है। यह उत्तम गुण-रत्न है।
सामायिक के साथ "संवर" को समझ लो, यह बहुत अच्छा, उपयोगी और व्यवहारिक है। इसका फायदा भी अच्छा होता है। मन चंचल है, एकाग्र होना मुश्किल है। साधना के लिए अगर हम ४८ मिनट का समय नहीं दे पाते, तो १०-१५ मिनट तो अपने लिए दे ही सकते है। "संवर" उनके लिए उपयुक्त है।
इसमें आप जहाँ भी हो उस क्षेत्र में, स्थान पर विशिष्ट कालावधि के लिए अपने आपको "संवर पाठ" से सामायिक जैसे ही व्रतबद्ध होकर, जो भी साधना करनी है, वहाँ कर सकते हैं। जिसमें आपकी रुचि हो, आवश्यकता हो और जितना समय है-वैसी साधना चुन सकते हैं। जैसे १० मिनट है और केवल नमस्कार महामंत्र और दूसरे कुछ मंत्र का जाप करना है- तो इतना कर सकते हैं अथवा उस समय में ध्यान का प्रयोग, प्राणायाम कुछ भी कर सकते हो। निश्चित समय, व्रतबद्ध होकर साधना करने से अधिक लाभ होता है। इसका लाभ होगा, रुचि बढ़ेगी तो आप वैसा समय बढ़ाकर साधना कर सकते हैं। मुझे विश्वास है, संवर की आदत हो जायेगी तो आप समय बढ़ाते बढ़ाते सामायिक तक जरुर पहुंचेंगे।
संवर पाट - पांच आश्रवद्वार छ: काय (१८ पाप) सेवन का दो करण तीन योग से (निर्धारित समय...) तक त्याग करता हूँ।
संवर आलोचना पाठ - किसी भी व्रत की सम्पन्नता पर पाँच नवकार मंत्र बोलकर "तस्स मिच्छामि डुक्कडं" ऐसा अन्त में कहना चाहिए। का
निर्मलयायुतं ध्यान, नूनं प्रसाद-कारणम् । इने अहम्
आत्मनात्मावलोकेन, जीत:शितत्तमभूले ।
बर्ने अ II
निमलतायुत ध्यान निश्चित प्रसन्नता का कारण है। आत्मा के द्वारा
मारणा का दर्शन करने से आत्मा शिवरच-मोक्ष को प्राप्त करती है।