Book Title: Ashtapahud Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 14
________________ के लिये ज्ञान और संवेग का मिला-जुला रूप आवश्यक है । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने इस मिले-जुले रूप को ही 'भाव' कहा है । परम शान्ति की यात्रा के लिए 'भाव' के विभिन्न आयामों को सर्व प्रथम समझना चाहिए (३०) । जीवन में गुण-दोषों का आधार 'भाव' ही है (२८) । मनुष्य मानसिक समता की प्राप्ति के लिए विभिन्न बाह्य वेश धारण करता है, किन्तु प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि (शुभ) भाव ही प्रधान वेश होता है, केवल बाह्य वेश सचाई नहीं है (२८) । शुभ भाव रहित वेश से कोई लाभ नहीं होता है (३०, ६६) बाह्य परिग्रह का त्याग भाव-शुद्धि के लिए किया जाता है (२८)।. जिसने अशुद्ध भावों को त्याग दिया है वह ही मुक्त है (३२) । जो देहादि की प्रासक्ति से मुक्त है वह ही भावरूपी वेश को धारण करने वाला साधु होता है (३३) । धर्म का (शुभ)-भाव. रहित श्रवण व पठन उपयोगी नहीं होता है (३९) । भाव-रहित व्यक्तियों के लिए बाह्य परिग्रह का त्याग, पर्वत, नदी, गुफा आदि में रहना-ये सब निरर्थक हैं (४३) । जब प्राचार्य कुन्दकुन्द यह कहते हैं कि बन्धन पौर मुक्ति का संबंध भाव से ही है (४६), तो इसका अभिप्राय यह है कि 'भाव' में जो संवेगात्मक अंश है वह ही बन्धन मुक्ति की प्रक्रिया में मूलभूत होता है, ज्ञानवंश का इस प्रक्रिया से कोई संबंध नहीं होता है। भाव में जो ज्ञानांश रहता है वह भावों में परिवर्तन और उनको दिशा प्रदान करने के लिए उपस्थित रहता है। ज्ञानांश के बिमा संवेग अन्धे होते हैं और संवेग के बिना ज्ञान शुष्क और प्रेरणाहीन होता है। . नैतिक दृष्टिकोण से 'भाव' दो प्रकार के होते हैं : (१) शुभ भाव और (२) अशुभ भाव (४०) । गुणियों में अनुराग, इन्द्रिय"यम में रुचि, दुष्टों के प्रति प्रसहयोग व उनका विरोध, दुःखियों के प्रति करुणा, चित्त में विनय, सरलता, सन्तोष मादि का रहना चयनिका.] Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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