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मनुष्य के ज्ञानात्मक और संवेगात्मक पक्ष की मिली-जुली अनुभूति होती है । दुःखियों को देखकर करुणा की मूल्यात्मक अनुभूति में दुखियों के होने का ज्ञान और करुणा का संवेग दोनों ही उपस्थित हैं। यहां यह भी समझना चाहिए कि ज्ञान और संवेग एक दूसरे को 'प्रभावित करते हैं । ज्ञान चिन्तनात्मक बुद्धि के माध्यम से भय, शोक क्रोध, ईर्ष्या, घृणा, चिन्ता, लोभ, काम, माया, प्रादि संवेगों (कषायों) पर अंकुश लगा सकता है। साथ में दया, प्रेम, मैत्री, कृतज्ञता आदि संवेगों को प्रोत्साहित कर सकता है और इनको उचित दिशा प्रदान कर सकता है । इसी तरह संवेग भी चिन्तनात्मक बुद्धि को प्रभावित करते हैं । लोभ, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या आदि संवेग चिंतनात्मक बुद्धिके कथनों को दबा सकते हैं और दया, प्रेम कृतज्ञता
आदि संवेग बुद्धि पर हावी होकर उसको कैसी भी दिशा प्रदान कर सकते हैं। कहा जाता है कि काम क्रोध आदि के प्रावेश में व्यक्ति बुद्धि खो देता है और बुद्धि के अंकुश के बिना दया, प्रेम आदि संवेग किसी भी तरफ प्रवाहित हो जाते हैं । इस तरह से ज्ञान और संवेग एक दूसरे को प्रभावित करते हैं और कोई भी क्रिया इनके मिले-जुले रूप से ही उत्पन्न होती है। इसी विश्वास के कारण उपदेश का श्रवण और मूल्यात्मक साहित्य का अध्ययन महत्वपूर्ण माने गये हैं। इस तरह इनके माध्यम से बुद्धि और संवेगों का शिक्षण किसी सीमा तक हो ही जाता है। यहाँ यह कहना उचित प्रतीत होता है कि नैतिकता-आध्यत्मिक मूल्यों के जागरण के लिए बुद्धि और हृदय (संवेग) दोनों ही आवश्यक हैं । किसी एक पर . ही जीवन को प्राश्रित करना एकान्त होगा और मूल्यात्मक जीवनके लिए अभिशाप बन जायेगा । समग्र (अनेकान्त) दृष्टि इन दोनों के महत्व को स्वीकार करने से ही उत्पन्न होती है। - उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मूल्यात्मक चेतना के विकास
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[ अष्टपाहुड
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