Book Title: Ashtapahud Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 31
________________ से उसका तादात्म्य समाप्त होता है और वह परम-प्रात्मावस्था की ओर उन्मुख होता है । इसलिए कहा गया है कि बहिरात्मा को छोड़ कर अन्तरात्मा को ग्रहण करके परम-आत्मा की ओर चलना चाहिए (59, 61) । इन्द्रियों से तादात्म्य बहिरात्म-अवस्था है (60) । इसमें. अज्ञानी व्यक्ति देह और प्रात्मा को एक विचारता है और उसका मन बाह्य वस्तुओं में ही लगा रहता है (62)। शरीर से भिन्न आत्मा का विचार अन्तरात्मा है, इस अवस्था में तनाव मुक्ति में रुचि पैदा होती है (60)। पूर्णरूप से तनाव-मुक्त हो जाना या समता को प्राप्त कर लेना परम-आत्मा-अवस्थो को प्राप्त कर लेना है (60) । अन्तरात्मा से परम-आत्मा तक की यात्रा, तनाव-मुक्ति में रुचि या समता में रुचि से तनाव-मुक्ति या समता को प्राप्त कर लेने की प्रक्रिया सम्यक् चारित्र है। अष्टपाहुड का कहना है कि व्यक्ति को यह प्रक्रिया उचित समय पर प्रारंभ कर देनी चाहिए (49)। ठीक ही कहा है : जब तक बुढ़ापा नहीं पकड़ता है, जब तक रोगरूपी अग्नि देहरूपी कुटिया को नहीं जलाती है, जब तक इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं होती है, तब तक प्रात्मजागरूकता (तनाव-मुक्ति/समता) प्राप्त कर लेनी चाहिये (49)। __ सम्यक चारित्र की प्रक्रिया में विषयों के प्रति उदासीनता (85), अहंकार का त्याग (33, 57), हिंसा, प्रासक्ति, लालसा, लोभ तथा अन्य कषायों का नाश(16, 34, 63, 71, 78,79,), शक्ति के अनुसार. तप (77, 83), दया का जीवन में प्रवेश (24), इन्द्रिय रूपी सेना को छिन्न-भिन्न करना तथा मनरूपी बन्दर को प्रयत्न पूर्वक अशुभ प्रवृत्तियों से रोकना सम्मिलित है (44) । संक्षेप में, पर-द्रव्य से अनासक्ति (64, 87), तथा प्रात्मा का ध्यान (47, 70), समता की प्राप्ति में महत्वपूर्ण सोपान हैं । ठीक ही कहा गया है : जिस प्रकार दीपक घर के भीतर के कमरे में हवा की बाधा से रहित जलता है, उसी प्रकार रागरूपी हवा से रहित ध्यानरूपी दीपक भी xxii ] [ अष्टपाहुड Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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