Book Title: Ashtapahud Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 46
________________ रहित (होता है), (श्रीर) (उसमें ) श्राशा रहित भाव (विद्यमान रहता है) । 28 (यह ) (तुम) जानो ( कि) भाव निस्संदेह प्रधान वेश (होता है), किन्तु (केवल ) बाह्य वेश सचाई नहीं है । जितेन्द्रिय व्यक्ति कहते हैं ( कि) भाव (ही) गुण-दोषों का कारण ( सदैव ) हुश्रा ( है ) । 29 भाव -शुद्धि के हेतु बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है, प्रांतरिक परिग्रह (मूर्च्छा) से युक्त (व्यक्ति) का बाह्य त्याग निरर्थक है । 30 हे पथिक । (तुम) सर्व प्रथम भाव को समझो । भाव रहित वेश से तुम्हारे लिए क्या लाभ है ? ( इस प्रकार ) जितेन्द्रियों द्वारा शिवपुरी का मार्ग (परम शान्ति का मार्ग) सावधानी पूर्वक प्रतिपादित ( है ) 31 रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र) के प्राप्त न करने के कारण तूने इस प्रकार (विभिन्न प्रकार से) दीर्घकाल तक संसार (मानसिक तनाव ) में चक्कर काटा। इसलिए तुम (संब) तीन रत्नों को धारण करो । इस प्रकार समतादर्शियों द्वारा कहा गया है । 32 (जिस व्यक्ति के द्वारा ) ( प्रशुद्ध) भाव त्यागा हुप्रा ( है ) ( वह ) मुक्त (है), परन्तु (जो) (केवल) बंधु श्रादि तथा मित्र से मुक्त ( है ) ( वह) (मुक्त) नहीं ( है ) | ( अतः ) इस प्रकार विचार कर, हे धीर ! (तू) प्रांतरिक परिग्रह (मूर्च्छा) को त्याग । चयनिका ] Jain Education International For Personal & Private Use Only [ 13 www.jainelibrary.org

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