Book Title: Ashtapahud Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 16
________________ सारा जीवन (शुभ-अशुभ) इच्छाओं का पिण्ड बना रहता है। इसके फलस्वरूप व्यक्ति अपने चिन्तनात्मक स्तर के अनुरूप इनकी तृप्ति का आयोजन करने में लीन रहता है। यह प्रायोजन 'जीवन के प्रारम्भिक काल में अचेतन रहता और परिपक्व अवस्था में चेतन हो जाता है। ___ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि चिन्तनात्मक बुद्धि संवेगजनित इच्छात्रों से प्रेरित होकर उद्देश्यों की पूर्ति में साधनों को जुटाती है और तृप्ति तक व्यक्ति को पहुंचाने का प्रयास करती है । यहां यह ध्यान देने योग्य है कि जब चिन्तनात्मक बुद्धि परिणामों को देखने में कुशल हो जाती है, तो कई इच्छाएं परिवर्तित भी की जा सकती हैं और इसके समुचित विकास से उच्च उद्देश्यों के प्रावि र्भाव से निम्न कोटि की इच्छाएं नष्ट भी हो सकती हैं। जैसे, शिकार की इच्छा, शराब पीने इच्छा, अति भोजन की इच्छा, लोभ के वशीभूत अन्याय से धन कमाने की इच्छा, दृष्टों के प्रति दया की इच्छा प्रादि के परिणामों को व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में कुप्रभाव डालते हुए देखने से उनमें परिवर्तन हो जाता है और कभी कभी वे इच्छाएं पूर्णतया नष्ट भी हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त जीवन में उच्च उद्देश्यों के प्रति समर्पित होने से भी अशुभ इच्छाएं समाप्त । हो जाती हैं । इस तरह से हम देखते हैं कि चिन्तनात्मक बुद्धि और ' इच्छाएँ एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। अशुभ भाव और मानसिक तनाव की प्रक्रियाः .... यह कहा जा चुका है कि मनुष्यों में इच्छाएं वर्तमान रहती हैं और वे अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए नाना प्रकार की क्रियामों में अभिव्यक्त होती हैं । समाज में विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों को हम नैतिक दृष्टिकोण से दो भागों में विभाजित कर सकते हैं : (१) शुभ चयनिका ]. . . [ vii Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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