Book Title: Ashtakprakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 6
________________ पुरोवाक् आचार्य हरिभद्रसूरि आठवीं शताब्दी के शीर्षस्थ जैनाचार्य थे। यद्यपि वे चित्तौड़ के राजा जितारी के राजपुरोहित थे पर पारङ्गत वैदिक विद्वान् होने के कारण अभिमानी होने पर भी ज्ञानपिपासु थे। वही ज्ञानपिपासा उन्हें आर्या महत्तरा के आग्रह पर आचार्य जिनभट के पास ले गयी और परिणामतः वे जैनाचार्य हरिभद्र बन गये। आवश्यक-नियुक्ति-टीका के अनुसार जिनभट उनके गच्छपति गुरु थे, जिनदत्त दीक्षागुरु थे, याकिनी महत्तरा धर्मजननी थीं, उनका कुल विद्याधर एवं सम्प्रदाय श्वेताम्बर था। कहा जाता है इस तरह आचार्य हरिभद्र ने १४४४ ग्रन्थों की रचना की। उन सभी ग्रन्थों की परिगणना तो नहीं की जा सकी पर विशिष्ट ग्रन्थों की सूची अवश्य इस तरह तैयार की गई है- १. अनुयोगद्वारसूत्रवृत्ति, २. अनेकान्तजयपताका (स्वोपज्ञ-टीकासहित), ३. अनेकान्तप्रघट्ट, ४. अनेकान्तवादप्रवेश, ५. अष्टकप्रकरण, ६. आवश्यकनियुक्ति लघुटीका, ७. आवश्यकनियुक्ति बृहट्टीका, ८. उपदेशपद, ९. कथाकोष, १०. कर्मस्तव, ११. कुलक, १२. क्षेत्रसमासवृत्ति, १३. चतुर्विंशतिस्तुतिसटीक,१४.चैत्यवन्दनभाष्य,१५.चैत्यवन्दनवृत्तिललितविस्तरा,१६.जीवाभिगमलघुवृत्ति, १७. ज्ञानपञ्चकविवरण, १८. ज्ञानादित्यप्रकरण, १९. दशवैकालिक अवचूरि (बृहट्टीका), २०. देवेन्द्रनरकेन्द्रप्रकरण, २१.द्विजवदनचर्पटा, २२. धर्मबिन्दु, २३. धर्मलाभसिद्धि, २४. धर्मसंग्रहणी, २५. धर्मसारमूलटीका, २७. धूर्ताख्यान, २७. नन्दीसूत्रवृत्ति, २८. न्यायप्रवेशसूत्रवृत्ति, २९. न्यायविनिश्चय, ३०. न्यायामृततरङ्गिणी, ३१. न्यायावतारवृत्ति, ३२. पञ्चनिर्ग्रन्थि, ३३. पञ्चलिंगी, ३५. पञ्चवस्तु सटीक, ३५. पञ्चसंग्रह, ३६. पञ्चसूत्रप्रकरणवृत्ति, ३७. पञ्चस्थानक, ३८. पञ्चाशकप्रकरण, ३९. परलोकसिद्धि, ४०. पिण्डनियुक्तिवृत्ति, ४१. प्रज्ञापनासूत्र प्रदेशव्याख्या, ४४. मुनिपतिचरित, ४५. यतिदिनकृत्य, ४६. यशोधरचरित्र, ४७. योगदृष्टिसमुच्चय, ४८. योगबिन्दु, ४९. योगशतक, ५०. लग्नशुद्धि, ५१. लोकतत्त्वनिर्णय, ५२. लोकबिन्दु, ५३. विंशतिविंशिका, ५४. वीरस्तव,५५. वीरांगदकथा,५६. वेदबाह्यता निराकरण,५८.व्यवहारकल्प,५९.शास्त्रवार्तासमुच्चय स्वकृतव्याख्यासहित, ६०. श्रावकधर्मतन्त्र, ६१. षड्दर्शनसमुच्चय, ६२. षोडशक, ६३. संग्रहणीवृत्ति,६४.सम्बोधप्रकरण,६५.आत्मानुशासन,६६.समराइच्चकहा,६७. सर्वज्ञसिद्धिप्रकरण सटीक, ६८. स्याद्वादकुचोद्यपरिहार, ६९. दिङ्नागकृत न्यायप्रवेशसूत्रवृत्ति, और ७०. सम्बोधसप्ततिकाप्रकरण। इन ग्रन्थों में यथासम्भव चयनित ग्रन्थों का सानुवाद प्रकाशन प्राकृत भारती के सहयोग से होना निश्चित हुआ है। इसी शृङ्खला में डॉ. अशोक कुमार सिंह द्वारा कृत हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद के साथ अष्टकप्रकरण प्रकाशित हो रहा है। डॉ. सिंह हमारे संस्थान के वरिष्ठ युवा प्रवक्ता हैं और संस्कृत-प्राकृत के कार्यशील निष्णात विद्वान् हैं। अष्टकप्रकरण की कतिपय विशेषताएँ उद्धरणीय हैं--- १. अष्टकप्रकरण में आचार्य हरिभद्र ने सर्वप्रथम महादेवाष्टकम् लिखकर महादेव की स्तुति की है और उन्हें वीतराग, सर्वज्ञ, शाश्वतसुखेश्वर, क्लिष्टकर्मकलातीत, निष्कल, सर्वदेवपूज्य, सर्वयोगिध्येय,सर्वनीतिसृष्टा, परं ज्योति, त्रिकोटीदोषवर्जित आदि विशेषणों से आभूषित किया है। यह निश्चित रूप से आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव की स्तुति है जो हरिभद्र के समय तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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