Book Title: Arhat Vachan 2012 01
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 3
________________ अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर ईसवी नववर्ष की शुभ बेला में अर्हत् वचन के 24वें वर्ष का प्रथम अंक पाठकों को समर्पित है। किसी पत्रिका का सतत प्रकाशन के 24वें वर्ष में प्रवेश स्वयं में गौरवपूर्ण है और हम यह क्षण अपने सुधी पाठकों को एवं प्रबुद्ध लेखकों को समर्पित करते हैं। जैन परम्परा में 24 के अंक की महत्ता सर्व विदित है फलत: यह सब के लिए विशेष खुशी का अवसर है। यह वर्ष कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ की स्थापना का रजत जयन्ती वर्ष भी है। अर्हत् वचन की विकास यात्रा में हमने अनेक पड़ाव देखें हैं। कभी व्यवधान भी आयें किन्तु उन सब पर आपकी शुभकामनाओं से विजय पायी। अब पत्रिका के स्वरूप में गुणात्मक अभिवृद्धि करने के भाव से हम अपने माननीय लेखकों एवं पाठकों से कुछ सहयोग का अनुरोध कर रहे हैं, जो निम्नवत् है। लेखकों से 1. 2. 3. सम्पादकीय सामयिक संदर्भ - लेख की प्राप्ति के तत्काल बाद हम प्राप्ति से अवगत करा देते हैं किन्तु समीक्षकों से संस्तुति प्राप्त होने में अनेकशः 3-6 माह का समय लग जाता है। आशा है लेखकगण सहयोग करेंगे। अर्हत् वचन की विषय परिधि बहुत सीमित है। कृपया इसका ध्यान रखकर ही लेख भेजें तो अच्छा रहेगा। प्रो. गोकुल चन्द्र जैन के प्रति सम्मान स्वरूप हमने इस अंक में न्याय विषयक लेख प्रकाशित किया है। उनका लेख 'भारतीय प्रमाण शास्त्र के इतिहास में प्रत्यक्ष प्रमाण' ज्ञानपीठ के प्रति उनके स्नेह एवं अनुराग का प्रतीक है जो हमें अर्हत् वचन में प्रकाशन हेतु प्राप्त हुआ है। जनवरी 2012 से Reprint देने की व्यवस्था समाप्त की जा रही है। क्योंकि हम सी. डी. में सम्पूर्ण अंक उपलब्ध करा रहे हैं। www.jainaeducation.com पर अर्हत् वचन के अनेक अंक उपलब्ध हैं अतः लेखक वहाँ से भी प्रिंट निकाल सकते हैं। वर्ष 2010 एवं 2011 के पूर्व के अंकों को भी website पर उपलब्ध कराने की हम व्यवस्था कर रहे हैं। पाठक गण इन्हें वहाँ से भी प्राप्त करने की व्यवस्था कर सकते हैं। पाठकों से 1. 1 जनवरी 2012 के बाद हम प्रकाशनार्थ केवल वे ही लेख स्वीकार करेंगे जो पूर्व में अप्रकाशित होने के प्रमाण पत्र एवं इस अंक के पृष्ठ 82 पर मुद्रित General Instructions and Information for Contributors अथवा लेखकों हेतु अनुदेश पृ. 24 के अनुरूप होंगे अन्यथा हम उनक पंजीयन ही नहीं कर सकेंगे अर्थात् ऐसे लेख जो Hard Copy एवं Soft Copy के साथ में सारांश एवं पूर्ण सन्दर्भों सहित नहीं होंगे अथवा जिनमें समीचीन संदर्भ स्थल या पूर्ण संदर्भ आदि नहीं होंगे उन्हें हम प्रकाशनार्थ स्वीकार नहीं कर सकेंगे। हाथ से लिखकर भेजे गये लेख स्वीकार्य नहीं होंगे। प्रकाशन के प्रारंभ से ही हम अनेक विद्वानों, चिन्तकों, सहयोगियों को अर्हत् वचन की निःशुल्क प्रतियां भेजते रहे हैं। मूल्य भी लागत से हमने बहुत कम रखा है। सभी निःशुल्क प्राप्त करने वाले महानुभावों से निवेदन है कि वे अब स्वयं सदस्यता ग्रहण करें अथवा अपने संस्थान को सदस्यता दिलायें। डाक की बढ़ती दरों के कारण हमें पत्रिका निःशुल्क भेजना कठिन होता जा रहा है। 1 जनवरी 2012 से सदस्यता की दरें पृ. 2 पर प्रकाशित विवरणानुसार रहेगी। अर्हत् वचन, 24 (1), 2012 3

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