Book Title: Apbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Author(s): Vasudev Sinh
Publisher: Samkalin Prakashan Varanasi

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Page 252
________________ अपभ्रश और हिन्दी में जेन-रहस्यवाद अवध ऐसो ज्ञान विचारी, वामें कोण पुरुष कोण नारी । बम्भन के घर न्हाती धोती, जोगी के घर चेली। कलमा पढ़ पढ़ भई रे तुरकड़ी, तो आप ही आप अकेली ॥ ससरो हमारो बालो भोलो, सासू बाल कुंवारी । पियजू हमारे प्होढ़े पारणिए, तो मैं हूँ मुलावनहारी॥ नहीं हूँ परणी, नहीं हूँ कुवारी, पुत्र जणावन हारी । काली दाढ़ी को में कोई नहीं छोड्यो, तो हजुए हूँ बाल कुँवारी॥ अढी द्वीप में खाट खटूली, गगन उशीकुं तलाई । धरती को छेड़ो, आम की पिछोड़ी, तोमन सोडभराई । गगन मंडल में गाय बिआणी, वसुधा दूध जमाई । सउ रे सुनो माइ वलो बलोवे, तो तत्व अमृत कोई पाई॥ नहीं जाऊँ सासरिये ने नहीं जाऊँ पीहरिये, पियजू की सेज बिछाई। आन दघन कहै सुना भाई साधु, तो ज्योत से ज्योत मिलाई ॥६॥ ( अानन्दघन बहोत्तरी, पृ० ४०३-४०४ ) बनारसीदास और संत सुन्दरदास : . बनारसीदास और संत सुन्दरदास समवर्ती थे। दोनों ही उच्च कोटि के अध्यात्मवादी थे। दोनों के मिलन की भी बात कही जाती है। यद्यपि इस प्रकार को भेंट का उल्लेख 'अर्ध कथानक' तक में नहीं मिलता है, तथापि दोनों के परिचय की संभावना में शंका नहीं व्यक्त की जा सकती। संत सुन्दरदास ने अधिक दिनों तक काशी में रहकर अध्ययन किया था। इसके पश्चात् उन्होंने दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और पंजाब आदि प्रदेशों के अनेक स्थानों का भ्रमण किया था। बहत संभव है इस यात्रा काल में उनकी भेंट बनारसीदास से हुई हो और दोनों में अध्यात्म चर्चा भी हुई हो। मोतीलाल मेनारिया का तो यह कहना है कि "इनका (संत सुन्दरदास) नियम था कि जिस स्थान पर जाते वहाँ के साधु महात्मानों से अवश्य मिलते थे। उनके सत्संग से लाभ उठाते और अपने सदुपदेशों से उन्हें लाभान्वित करते थे। अपनी गुणग्राहकता के कारण दादूपंथियों के सिवा इतर धर्मावलम्बी भी इन्हें बड़ी श्रद्धा की दष्टि १. मिलाइए, कबीर का पद इस प्रकार है : अवधू ऐसा ग्यांन विचारी, तार्थे भई पुरिष थें नारी ।। टेक ॥ नां हूँ परनी नां हूँ क्वारी, पूत जन्यू द्यौ हारी । काली मूण्ड को एक न छोड्यौ अजहूँ अकन कुवारी ।। बाम्हन कै बम्हनेटी कहियो, जोगी के घर चेली। कलमां पढि पढि भई तुरकनी, अजहूँ फिरौं अकेली।। पीहरि जाउं न रहूँ सासुरै, पुरषहि अंगि न लांऊं । कहै कबीर सुनहु रे सन्तो, अंगहि अंग न छुवांऊं ॥ २३१ ।। (कबीर ग्रन्थावली, ५० १६६),

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