Book Title: Apbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Author(s): Vasudev Sinh
Publisher: Samkalin Prakashan Varanasi

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Page 303
________________ खटोलना गीत रूपचन्द भव रति मंदिर पौढियो, खटोला मेरो कोपादिक पग चारि। काम कपट सीरा दोऊ, चिन्ता रति दोऊ पाटि ॥१॥ अविरति दिढ़ बाननि बुनो, मिथ्या माई विसाल । आशा अडवाइनि दई, शंकादिक वसु साल ॥२॥ रचिउ गठिउ मन बाढ़ई, बहु विधि कर्म सहाय । प्रथम ध्यान दोउ कारने, वा सिरुखा नीलाइ (?) ॥३॥ राग दोष दोउ गड़वा, कुमति सुकोमल सौरि । जीव पथिक तंह पौढियो, पर परिणति संग गौरि ॥४॥ मोह नींद सूतै रहिउ, लागी विषय हवास । पंच करण चोरनि मिलै, मूसउ सकल अवास ॥१॥ अनादि काल सोतै गयो, अजहूँ न जागइ मान । मोह नींद टूटै नहीं, क्यों पावै निरवान ॥६॥ सोते सोते जागिया, ते नर चतुर सुजान । गुरु चरणायुध बोलियो, समकित भयो बिहान ॥७॥ काल रमन तब बीतई, ऊगो ज्ञान सुभानु । भ्रान्ति तिमिर जब नाशियो, प्रगटउ अविचल थानु ॥६॥ छोडि खटोला तुरत ही, धरिवि दिगम्बर वेष । गुप्त रतन तीनों लिए, ते रि गए शिव देश ॥९॥ सिद्ध सदा जहाँ निवसहीं, चरम शरीर प्रमाण । किंचिइन मयनोझित, मूसा गगन समान ॥१०॥ परम सुखामृत पीव के, पाई सहज समाधि। अजर अमर ते होइ रहै, नासी सकल उपाधि ॥११॥ सो अब हौं जागिसी, कब लहिहौं अवकाश । मोह नींद कब टूटसी, कब लहिहौं शिववास ॥१२॥ रूपचन्द जन बीनवै, हूजौ तुव गुण लाहु। ते जागा जे जागसी, ते हउं बन्दउ साहु ॥१३॥ ॥ इति खटोलना गीत समाप्त ॥ १. भामेर शास्त्र भाण्डार, जयपुर में सुरक्षित प्रति से। .

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