Book Title: Apbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Author(s): Vasudev Sinh
Publisher: Samkalin Prakashan Varanasi

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Page 306
________________ ममाधितन्त्र जमविजय उपाध्याय आदि समरि भगवती भारती, प्रणमी जिन जगबंध । केवल आतम बोध को, करि सों सरस प्रबन्ध ||१|| केवल प्रातम बोध है, परमारथ शिव पंथ । तामें जिनको ममनता, सोई भावनि यंथ ॥२॥ भोग ज्ञान जिउ बाल को, बाह्य ज्ञान की दीर । तरुण भोग अनुभव जिस्यो, मगन भाव कछु और ॥३॥ मंत दोधक सत के ऊपरयौ, तंत्र समाधि विचार । धरो एह बुध कंठ में, भाव रतन को सार ||१०२।। ज्ञान विभाग चरित्र ये, नंदन सहज समाधि । मुनि सुरपती समता शची, रंग रमे अगाधि ॥१०३|| कवि जस विजय ए रचे, दोधक सतक प्रमाण । एह भाव जो मन धरै, सो पावै कल्याण ।।१०४॥ मति सर्वंग समुद्र है, स्याद वाद नय शुद्ध । षडदर्शन नदीयां कही, जाणों निश्चय बुद्ध ॥१०॥ १. सरस्वती भांडार, मेवाड़ में सुरक्षित प्रति से।

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