Book Title: Apbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Author(s): Vasudev Sinh
Publisher: Samkalin Prakashan Varanasi

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Page 311
________________ २१६ अपभ्रंश और हिन्दी में जन-रहस्यवाद गुरु' समान दाता नहि कोई ॥टेक॥ भाव प्रकास न नासत जाको, सो अँधियारा डारै खोई || गुरु || मेघ समान सबन पै बरषै, कछु इच्छा जाके नहि होय । नरक पसूं गति आग मांहि ते, सुरंग मुकत सुख थाप जोय ॥ १ ॥ तीन लोक मंदिर में जानौ, दीपक सम परकासक लोय । दीप तले अँधियार भर्यो है, अंतर बहिर विमल है सोय ||२|| तारन तरन जिहाज सुगुर है, सख कुटुम्ब डोवै जग तोय | द्यात निसिदिन निरमल मन मै राखौ गुरु पद पंकज दोय || ३ || ऐसा सुमिरन कर मेरे भाई, पवन थंभै मन कितहु न जाई ॥ टेक ॥ परमेसुर सो सांच रहीजै, लोक रंजना भय तज दीजै ॥ | ऐसा० ॥ १ ॥ जप अरु नेम दोउ बिधि धारै, आसन प्राणायाम संभारै । प्रत्याहार धारणा कीजै, ध्यान समाधि महारस पीजै ॥ ऐसा० ॥ २ ॥ सो तप तपो बहुरि नहिं तपना, सो जप जपो बहुरि नहिं जपना । सो व्रत घरो बहुरि नहिं घरना, ऐसो मरो बहुरि नहिं मरना || ऐसा० ॥ ३ ॥ पंच परावर्तन लखि लीजै, पांचो इन्द्रियन की न पतीजै । द्यानत पांचो लच्छि लहीजै, पंच परमगुरु सरन गहीजै || ऐसा०||४|| १. छाबड़ो का मंदिर ( गुटका नं० ५० ), जयपुर की प्रति से। २. बधीचन्द मंदिर, जयपुर की प्रति से ( द्यानत पद संग्रह, पद नं० ७८, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता में भी सुरक्षित ) ।

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