Book Title: Apbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Author(s): Vasudev Sinh
Publisher: Samkalin Prakashan Varanasi
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परिशिष्ट
खीर नीर ज्यों मिलि रहे, ज्यों कंचन पाखान । त्यौं अनादि संयोग भनि, पुदगल जीव प्रवान ॥ ५८॥ सिव सुख कानि करत सठ, जप तप बरत विधान । कर्म्म निर्जरा करन की, सोहं सवद प्रमान ॥ ५९ ॥ ग्रीषम बरषा सीत रितु, पुनि तप तपत त्रिकाल । रतनत्रय विनु मोक्ष पद, लहै न करत जंजाल ॥ ७१ ॥ घोवत देह न धोइए, लगी चित्त रज गूढ़ दर्पण के प्रतिबिम्ब मल, मांजत मिटै न मूढ़ ॥ ७९ ॥ उतनी सांगानेरि को, अब कामागढ़ वास । तहां हेम दोहा रचे, स्वपर बुद्धि परकास ॥ ९८ ॥ कामागढ़ सू बस जहां, कीरति सिंघ नरेस । अपनो खग बलि बस किए, दुर्जन जिनेक देस ॥ ९९ ॥ सत्रह सै र पचीस को, वरने संवत सार । कति सुदि तिथि पंचमी, पूरन भयो विचार ॥ १००॥ एक आग रे एक सौ कीए दोहा छंद । जो हित है बांचे पढ़े, ता उरि बढ़े अनंद ॥ १०१ ॥
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