Book Title: Apbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Author(s): Vasudev Sinh
Publisher: Samkalin Prakashan Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 302
________________ अध्यात्म सवैया रूपचन्द सुगुरु सुदेव जाकी कीजै बिघ सेव, सदा घरीय सुध्यान ग्यान प्रातम मुभाव है। प्रातमा अनूप रूप परम सुकीव जान, करुनानिधान महामोह को अभाव है। घरीय सहज धीर हिरदै धरम सांचौ, ताहि माहि राचौ कुन आप निज भाव है। चंद गुरुदेव सेव सुख है सरूप जाकी, यहै घट तीरथ भौ, लिवे की नाव है ॥१९॥ पर मैं न जाने आप, आप ही रह्यी व्याप, ऐसो सुध ग्यान है निदान मोछ पंथ को। देव गुरु धरम सौ घरी मन ठीक ऐसी, न मैं न मिथ्याती काह ऐसो मन सन्त कौ ॥ जग्यौ है विवेक घट त्याग्यौ है अग्यान हट, गयो है भरम नठ सुमति के कन्त को। घट में प्रगट भयो सिंघ सारदूल ग्यान, गयो बल घट सो मिथ्यात मयमन्त कौ ॥२२॥ भूल गयौ निज सेज महामुख, मान रही सुख सेज पराई। पास हुतासन तेज महा, जिहि सेज अनेक अनन्त जराई ।। थित पूरी भई जुनिमान को, हृति भेद विग्यान घटा जुभराई। उमग्यौ समिता रस मेघ महा, जिह वेग ही आम हतास सिराई॥ काहू न मिलायौ जाने करम संजोगी सदा, छोर नीर पाइयो अनादि ही का धरा है। अमिल मिलाय जड़ जीव गुन भेद न्यारे. न्यारे पर भाव परि आप ही में धरा है।। काहू भरमायौ नाहि भम्यौ भूल आपन ही, आपने प्रकास के विभाव भिन्न धरा है। साचौ अविनासी परमातम प्रगट भयो, नास्यौ है मिथ्यात वस्यौ जहाँ ग्यान धरा है ॥९॥ इसी प्रकार के १०१ कवित्त सर्वया छन्दों में यह ग्रन्थ पूर्ण हया है। अन्त में लिखा है 'इति श्री अध्यात्म रूपचन्द कृत कवित समाप्त ।' १. श्री बधीचन्द मन्दिर, जयपुर के शास्त्र भाण्डार में सुरक्षित प्रति से।

Loading...

Page Navigation
1 ... 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329