Book Title: Apbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Author(s): Vasudev Sinh
Publisher: Samkalin Prakashan Varanasi

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Page 275
________________ एकादेश अध्याय २५६ विषाद तथा जिसमें एक भी दोष नहीं है, उसी का नाम निरंजन है । यहाँ दृष्टव्य यह है कि योगीन्दु मुनि ने भी 'निरंजन' के स्वरूप का ठीक उसी प्रकार से और लगभग उन्हीं शब्दों में वर्णन किया है जो 'धर्म और निरंजन मत' को मान्य है । निरंजन सम्प्रदाय में भी निरंजन' को इसी प्रकार सभी उपाधियों से रहित परम तत्व बताया गया है। मुनि रामसिंह ने भी इसी वर्ष परमज्ञानमय, शिवरूप निरंजन से अनुराग करने का निर्देश किया है :विरागाणमउ जो भावइ सत्रभाव | 3 संतुणिरंज सो जिसि तहि किज्जइ अराउ ||३८|| (77377.2002) संत आनंदघन का भी विश्वास है कि जो पुरुष समस्त आशाओं का हनन करके, ध्यान द्वारा 'अजपा जाप को अपने अन्तर में जगाता है, वह आनन्द के घन एवं चेतनता की मूर्ति निरंजन स्वामी को प्राप्त करता है। और आनंदघन की गति तथा पति तो निरंजन देव ही हैं, इसलिए अब वे अन्यत्र भटकने की अपेक्षा, उन्हीं की शरण में जाना श्रेयस्कर समझते हैं, क्योंकि निरंजन देव ही सकल भयभंजक हैं, कामधेनु हैं, कामना का घट हैं तथा शरीर रूपी वन में काम रूपी उन्मत गज का विनाश करनेवाले केहरि हैं : १. जासु ण वण्णु ण गंधु रसु जसु ग्ण सद्दु ण फासु । जासु ण जम्मणु मरणु वि गाउ गिरंजणु तासु || १६ || जासु ण कोहुण मोहु मउ जासु ण मात्र ण माणु । जासुण ठाण झणु जिय सो जिरिंजणु जणु ||२०|| अस्थि ण पुण्णु ण पाउ जसु श्रत्थि ण हरिमु बिसाउ | श्रत्थि एक्कु वि दो जमु सो जि गिरंजणु भाउ | २१|| (परमात्मप्रकाश, पृ० २७-२८ ) २. योगीन्दु मुनि के उपर्युक्त निरंजन स्वरूप वर्णन और निरंजन सम्प्रदाय के देवता निरंजन में कितना साम्य है, यह नीचे के श्लोक से स्पष्ट हो जाता है । धर्म पूजा विधान में निरंजन का ध्यान इस प्रकार किया जाता है :श्रीं यस्यान्तं नादिमध्यं न च कर चरणं नास्ति कायो निनादम् नाकारं नादिरूपं न च भयमरणं नास्ति जन्मैव यस्य | योगीन्द्रध्यानगम्यं सकलदलगतं सर्वसंकल्पहीनम् कोऽपि निरंजनोऽमरवरः पातु मां शून्यमूर्तिः || ( मध्यकालीन धर्म साधना, पृ० ७६ से उद्धृत ) ३. श्रासा मारि आसन घरि घट में, अजपा जाप जगावे । श्रानंदघन चेतनमय मूरति नाथ निरंजन पावे ||७| ( आनंदघन बहोत्तरी, पृ० ३५६ )

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