Book Title: Apbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Author(s): Vasudev Sinh
Publisher: Samkalin Prakashan Varanasi

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Page 298
________________ परिशिष्ट २८३ बड़ जानो गणघर तहां भले परोसण हार हो। सिव सुन्दरी के व्याह कौं सरस भई ज्यौंणार हो।मेरी०३०॥ त्रियक श्रेणी मारग भला तिस चाले जिणराय हो। घातोय कर्म विडारि के सिद्ध पहुंचे जाय हो ।मेरी० ३१॥ मुक्ति रमणि रंग स्यौं रमैं वसु गुण मंडित सोइ हो । अनंत चतुष्टय सुष घणां जन्म मरण नहिं होइ हो ।मेरी०३२।। सहर सुहावै बूडीए भणत भगौतीदास हो। पड़े गुण सो हृदै धरइ जो गावें नर नारि हो ॥मेरी०३३॥ ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ...। लिङ्ग लिषावै चतर ते उतरे भव पार हो।मेरी०३४॥ राजबली जहाँगीर के फिरइ जगति तस प्रांण हो। शशि रस वसु विदा धरहु संवत सुनहु सुजाण हो।मेरी० ३५।। ॥ इति श्री चूनरी समाप्त ।।

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