Book Title: Apbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Author(s): Vasudev Sinh
Publisher: Samkalin Prakashan Varanasi

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Page 296
________________ ३६ आत्म प्रतिबोध जयमान्त' छीहल ( रचनाकाल - सं० १५७५ ) पणविवि अरहंतहं गुरु रियह केवलणाण अनंतगुगी । सिद्धहं पणवेप्पिणु कमर उलेप्पिणु सोहं सासय प (र) म मुणी ॥ छ ॥ हउं दंसण णाण चरित्त सुद्ध | हउं देह पमाणुवि गुण समिद्ध ॥ हउं परमाणंदु अखंड देसु । हउ णाण सरोवर परम हंसु ॥ हउं चेयण लक्खण णाण पिंडु । हउं परम णिरंजण गुण पयंडु ॥ हउं सहजानंद सरूव सिंधु । हर्ड सुद्ध सहाव अखंड बुद्ध ॥ हरं णिक्कल हउं पुणु णिरुकसाय | हउ कोह लोह गय वीयराय ॥ हउं केवलणाण अखण्ड रूव । हउं परम जोयि जोई सरूव ॥ हरयणत्तय चउविह जिणंदु | ह बारह चक्सर रिंदु ॥ हउं णव पडिहर णव बासदेव । ह व हलहर पुणु कामदेव ॥ घत्ता छालिह गुण सायरु, वसु गुण दिवायरु | आयिरिहि छत्तीस गुण । पणदह सासणु धम्म पयासणु हउ अणवीस गुण ससिणि मुणि ॥ " इति आत्मसम्बोधन जयमाल समाप्तः " १. दिगम्बर जैन मन्दिर बड़ा तेरहपथियों ( जयपुर ) की प्रति से ।

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