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आत्म प्रतिबोध जयमान्त'
छीहल
( रचनाकाल - सं० १५७५ )
पणविवि अरहंतहं गुरु रियह केवलणाण अनंतगुगी । सिद्धहं पणवेप्पिणु कमर उलेप्पिणु सोहं सासय प (र) म मुणी ॥ छ ॥
हउं दंसण णाण चरित्त सुद्ध | हउं देह पमाणुवि गुण समिद्ध ॥ हउं परमाणंदु अखंड देसु ।
हउ णाण सरोवर परम हंसु ॥ हउं चेयण लक्खण णाण पिंडु ।
हउं परम णिरंजण गुण पयंडु ॥ हउं सहजानंद सरूव सिंधु ।
हर्ड सुद्ध सहाव अखंड बुद्ध ॥ हरं णिक्कल हउं पुणु णिरुकसाय |
हउ कोह लोह गय वीयराय ॥ हउं केवलणाण अखण्ड रूव ।
हउं परम जोयि जोई सरूव ॥ हरयणत्तय चउविह जिणंदु | ह बारह चक्सर रिंदु ॥ हउं णव पडिहर णव बासदेव । ह व हलहर पुणु कामदेव ॥ घत्ता छालिह गुण सायरु, वसु गुण दिवायरु | आयिरिहि छत्तीस गुण ।
पणदह सासणु धम्म पयासणु हउ अणवीस गुण ससिणि मुणि ॥
" इति आत्मसम्बोधन जयमाल समाप्तः "
१. दिगम्बर जैन मन्दिर बड़ा तेरहपथियों ( जयपुर ) की प्रति से ।