Book Title: Apbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Author(s): Vasudev Sinh
Publisher: Samkalin Prakashan Varanasi

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Page 294
________________ परिशिष्ट फणहरि मुक्कउ कंचवउ, जं बिसु तेण माहि । जिण लिगेण व तइयएण, विसय ण चिनु मुएहि ॥२३॥ बाल मरण मुणि निदाद पंडिय मरण महि । बारहजिम सासण कह्यि, म नः ममरेहि ।।२३७॥ बुझहि अप्पा आप पर पर परियाहि । तामह इंदिण त उ कहिउ, सिवपउ सइ पाहि ॥४०॥ बंभणु खत्ति उ वइमु बरु, जोइहि धवनु न होइ। वइभरलेविणु जो चडइ, मो कानउ धवलेइ ।।२४६॥ भल्लउ जइ जनपद, इछहि तो करि एहु । दोस अट्ठारह वज्जियउ, झायहि जिणवरु देउ ॥२४८|| भेउ ण जोवह पुग्गलहूं, पइ भाविउण कयावि । ते पुछतु वि परिभमहि, मह परममा दावि ॥२५४|| मे परियणु मे धणु धण, मे मुअ मेदा गई। झूउ चित्तंतह जीव तुह, गयभव कोडि मया 11६६।। मोक्खु मु बुच्चइ जिगनमइ, जो जम्मा भार। सच्चारित्तु वि मणहि जिय, जेन्यु न पुण्ण न पाउ ॥२६॥ मउ मच्छरु माया मयणु, मण कारेंसहु माणु। सब्ब पयारइ परिहरहि, पावहि तउ निब्बाणु ॥२७॥ रूव गंध रस फंसडा, सह लिंग गुण हीण । अछइ सी देहडिय सउ, घिउ जिम खीरह लीण ॥२७७।। रेचय पूरय कुंभयहि, इड़ पिंगलहि म जोइ। नाद विंद कलवज्जिय उ, संतु निरंजणु जोइ ॥२७८।। लहि हय गय गोहणई, मणि कंचग बरगांव। दुलहउ भवसायर तरणि, जिणदेसणजियणांव ॥२८४॥ लेज्जहु लइयउ करहु जिम, हिंडइ देस असंक्ख । कम्म निबद्धउ जीवन्त हु, तिम चउरासी लक्ख ॥२९०॥ सिवतंदुल जिम सालिहि, नीरहु आसि कढंति । तिम अप्पा अप्पहि सहिउ, सिझइ अवसुण भंति ॥३१०॥ संकलु कंचणु लोहमउ, बंधह कारणु जेम। पुण्णु पाव बंधण निविड, विण्णिवि जीवह तेम ॥३१८|| हियय सरोवरु हंसठिउ, जिम भवाटिउदीउ । अछइ मयंदिण कहिउ, नहालग उनीः ॥३२२॥ हसिहंथि म कव्वं, छन्दलं कामयाममाताह। जे लक्खणे अक्खुणा, अहपि निलक्खणो मुक्खो॥३३१॥ छवंज्जय दह चारिसुर, वाव परिचत्त । महयंदिण सेसकरह, वारकावदिय सम्मत्त ॥३३२॥ विण्णि देव गुरु तिण्ण, सरस्म इ संभवि । मुवण सत्थु अब्भथवि, दुजण परिहरिवि ॥३३३।।

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