Book Title: Apbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Author(s): Vasudev Sinh
Publisher: Samkalin Prakashan Varanasi
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.२७६
अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद जोइय जोउ निवारि, समर सताइ परिठियइ । अप्पा अण्णु विचारि, भणइं जोइहि भणिउ ॥३३॥ जोइय जोयइ जीयो, जो जोइज्जय सो जि तुहं । अण्णु ण वीयइ कोइ, भणई जोइ जोइहिं भणिउ ॥३४॥ सोहं सोहं जि हउं, पुणु पुणु अप्पु मुणेइ। मोक्खहं कारिण जोइया, अप्पु म सो चितेइ ॥३५।। धम्मु मुणिज्जहिं इक्कु पर, जइ चेयण परिणामु । अप्पा अप्पउ झाइयइ, सो सासय सुहु धामु ॥३६॥ ताई भूप विडंवियओ, णो इत्थहि णिव्वाणु । सो न समीहहिं तत्तु तुहुं, जो तइलोय पहाणु ॥३७॥ हत्थ अहु जु देवलि, तहि सिव संतु मुणेइ । मूढा देवलि देव णवि, भुल्लउ काइं भमेइ ॥३८॥ जो जाणइ ति जाणियउ, अण्णु णय जाणइ कोइ । धंधइ पडियउ सयलु जगु, एम भणंति हु जोइ ॥३९॥ जो जाणइ सो जाणियइं, यह सिद्धंतइं सारु । सो झाइज्जइ इक्कु पर, जो तइलोयह सारु ॥४०॥ अज्झवसाण णिमित्तइण, जो बंधिज्जइ कम्मु । सो मुच्चिज्जइ तो जि परु, जइ लब्भइ जिण धम्मु ॥४१॥ जो सुह असुह विवज्जियउ, सुद्ध सचेयण भाउ । सो धम्मु वि जाणेहिं जिय, णाणी बोल्लहिं साहु ॥४२॥ धेयह धारणु परिहरिउ, जासु पइइ भाउ । सो कम्मेण हि बंधयई, जहिं भावइ तहिं जाउ ॥४३॥ सो दोहउ अप्पाण हो, अप्पा जो ण मुणेइ। सो झांयतहं परमपउ, जिणवरु एम भणेइ ॥४४॥ वउ तउ णियमु करंतयहं, जो ण मुणइ अप्पाणु । सो मिच्छादिठ्ठि हवइ, णहु पावहि णिव्वाणु ॥४५॥ जो अप्पा णिम्मलु मुणइ, वय तव सील समाणु । सो कम्मक्खउ फुडु करइ, पावइ लहु णिव्वाणु ॥४६॥ ए अणुवेहा जिण भणय, णाणी बोलहिं साह । ते ताविज्जहिं जीव तुहूं, जइ चाहहिं सिव लाहु ॥४७॥
॥ इति अणुवेहा ॥

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