Book Title: Apbhramsa Vyakarana Hindi
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 12
________________ (iii) . स्वयंभूदेव उपर्युक्त प्राचीन कवियों में से किसी की भी कृति उपलब्ध नहीं होने के कारण कविराज स्वयंभूदेव (ईसा की नवीं शताब्दी) के महाकाव्य इन संधिबंधों की जानकारी के हमारे प्राचीनतम आधार हैं । चतुर्मुख, स्वयंभू और पुष्पदंत ये तीनों अपभ्रंश के प्रथम पंक्ति के कवि हैं और इनमें भी पहला स्थान स्वयंभू को सहज ही दिया जा सकता है । स्वयंभू की कुलपरंपरा में ही काव्य-प्रवृत्ति थी । लगता है कि उसने नासिक तथा खानदेश के पास के प्रदेशों में भिन्न-भिन्न जैन श्रेष्ठिओं के आश्रय में रहकर काव्यरचना की होगी । बहुत संभव है कि स्वयंभू यापनीय नामक जैन संप्रदाय का होगा । स्वयंभू की केवल तीन कृतियाँ बची हुई हैं : 'पउमचरिय' और 'रिहणेमिचरिय' नामक दो पौराणिक महाकाव्य और 'स्वयम्भूछन्द' 2 नामक प्राकृत और अपभ्रंश छद-विषयक ग्रन्थ । 'पउमचरिय' 'पउमचरिय' (सं. पद्मचरित) 'रामायणपुराण' नाम से भी प्रसिद्ध है । इसमें स्वयंभू पद्म अर्थात् राम के चरित पर महाकाव्य लिखने की संस्कृत तथा प्राकृत परंपरा का अनुसरण करता है । 'पउमचरिय' में प्रस्तुत की गयी रामकथा का जैन स्वरूप वाल्मीकिरामायण में प्राप्त ब्राह्मणपरंपरा के स्वरूप से प्रेरित होने के बावजूद कई महत्त्वपूर्ण बातों में भिन्न है । स्वयंभूरामायण का विस्तार कोई पुराण की स्पर्धा कर सकता है । यह विज्जाहर (सं. विद्याधर), उज्झा (सं. अयोध्या), सुन्दर, जुज्झ (सं. युद्ध) और उत्तर-ऐसे पाँव काण्डों में विभक्त है। प्रत्येक काण्ड सीमित संख्या के सिंधि' नामक खंड में विभक्त है । पाँचों काण्डों के कुल मिलाकर नब्बे संधि हैं । ये प्रत्येक संधि भी बारह से बीस तक के 'कडवक' नामक छोटे सुग्रथित इकाई का बना हुआ है। यह कडवक ( = प्राचीन गुजराती साहित्य का कडवु') नामक पद्यपरिच्छेद अपभ्रंश और अर्वाचीन भारतीय-आर्य के पूर्वकालीन साहित्य की विशिष्टता है। कथापधान वस्तु के गु'फन के लिये ये अत्यंत अनुकूल है । कडवक की देख 2. माध्यमिक भारतीय-आर्य छन्दों के लिये यह एक प्राचीन और प्रमाणभूत साधन होने के अतिरिक्त 'स्वयंभूछन्द' का मुख्य महत्त्व उसमें दी गयी पूर्वकालीन प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य की टिप्पणियों के कारण भी है। इस माध्यम से हमें उस साहित्य की समृद्धि का ठीक-ठीक पता चलता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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