Book Title: Apbhramsa Vyakarana Hindi
Author(s): H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 11
________________ ( ii ) आरंभ और मुख्य साहित्य-स्वरूप साहित्य तथा उत्कीर्ण लेखों में प्राप्त उल्लेखों से पता चलता है कि ईसा की छठी शताब्दी में तो अपभ्रंश ने एक स्वतंत्र साहित्यभाषा का स्थान प्राप्त कर लिया था । संस्कृत और प्राकृत के साथ-साथ इसे भी एक साहित्यभाषा के रूप में उल्लेखनीय माना जाता था । फिर भी हमें प्राप्त प्राचीनतम अपभ्रंश कृति ईसा की नवीं शताब्दी से पहले की नहीं है । तात्पर्य यह कि इसके पहले का सारा साहित्य लुप्त हो गया है । नवीं शताब्दी से पहले भी अपभ्रंश में साहित्य रचना काफी मात्रा में होती रही होगी इसके अनेक प्रमाण हमें मिलते हैं। नवीं शताब्दी के पहले के चतुर्मुखादि नौ-दस कवियों के नाम और कुछ उद्धरण हमारे पास हैं । इनमें जैन तथा ब्राह्मण परंपरा की कृतियों के संकेत मिलते हैं। और उपलब्ध प्राचीनतम उदाहरणों में भी साहित्यस्वरूप, शैली और भाषा का जो सुविकसित स्तर देखने को मिलता है इस पर से भी उपयुक्त बात स्थिर होती है। नवीं शताब्दी पहले के दो पिंगलकारों के प्रतिपादन पर से स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वकालीन साहित्य में अपरिचित ऐसा कम से कम दो नये साहित्यस्वरूप-संधिबंध और रासाबंध-तथा काफी सारे प्रासबद्ध नवीन मोत्रावृत्त अपभ्रंशकाल में आबिभूत हुए थे । संघिबंध इनमें संधिबंध सर्वाधिक प्रचलित रचनाप्रकार था । इसका प्रयोग भिन्न-भिन्न कथावस्तु के लिये हुआ है। पौराणिक महाकाव्य, चरितकाव्य, धर्मकथा--यह फिर एक ही हों या समग्र कथाचक्र हों-इन सब विषयों के लिये औचित्यपूर्वक संधिबंध का प्रयोग हुआ है । प्राप्त प्राचीनतम संधिबंध नवीं शताब्दी के आसपास का है परंतु उसके पहले लम्बी परंपरा रही होगी, यह देखा जा सकता है । साहित्यिक उल्लेखों पर से अनुमान हो सकता है कि स्वयंभू के पहले भद्र (या दंतिभद्र), गोविंद और चतुर्मुखने रामायण और कृष्णकथा के विषय पर रचनाये की होगी। इनमें से चतुर्मुख का निर्देश बाद की अनेक शताब्दियों तक सम्मानपूर्वक होता रहा है । उक्त विषयों का संधिबंध में निरूपण करनेवाला वह अग्रगण्य और शायद वैदिक परंपरा का कवि था । उसके 'अब्धिमंथन' नामक संधिबंध काव्य का उल्लेख भोज तथा हेमचन्द्र ने किया है । देवासुर द्वारा समुद्रमंथन उसका विषय होगा, इस अनुमान के अतिरिक्त उसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता । 1. 'तीन' नहीं कहा है क्योंकि जनाश्रय की 'छन्दोविचिति' का उल्लेख प्राकृतपरक है कि अपभ्रंशपरक इसका निश्चय नहीं होता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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