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अनुसन्धान-७५(२)
चतुर्विंशति-जिनराज-स्तुति (सावचूरि)
सं. - पं. कल्याणकीर्तिविजय
आ एक यमकबद्ध अनुपम रचना छे जेमां चोवीश तीर्थंकरोनी एक-एक अनुष्टुप् श्लोकमां स्तुति करवामां आवी छे. साथे ज, छेल्ले ४ श्लोकोमा द्रुतविलम्बित छन्दमां सामान्य जिननी स्तुतिनो जोडो छे जे पण यमकबद्ध ज छे. प्रस्तुत २८ श्लोकोमा दरेकमां बीजुं तथा चोथु चरण समान छे, परन्तु बन्ने चरणोनो पदच्छेद तथा तेने लीधे थतो अर्थभेद चमत्कारपूर्ण छे.
__ आवां अन्य यमकबद्ध काव्योनी जेम, अर्थसङ्गति करवामां आ पण एक अघरी ज रचना छे, परन्तु तेनी साथे आपवामां आवेल अवचूरि तेने सरल बनावी दे छे.
__ अवचूरिनुं लाघव, जरूर पडे तेटला ज शब्दोनो अर्थ-वगेरेथी जणाय छे के कृतिना कर्ता तथा अवचूरिना कर्ता एक ज होवा जोइए । जो के, बन्नेमांथी एकेय कर्तानो क्यांय उल्लेख करायो नथी. छतांय, छेल्ला (२८मा) श्लोकमां सकलश्रुतनायिका - ए पदथी एवं अनुमानी शकाय के आ रचनाना कर्ता उपाध्याय श्रीसकलचन्द्र गणि होई शके, कारण के तेमनी विद्वत्ता तथा कवित्वशक्तिने अनुरूप ज आ रचना छे; अथवा सकल पद जेमना नाममां आवे तेवा बीजा कोई कवि पण होई शके. प्रतिपरिचय
स्तम्भतीर्थनगर (खम्भात) स्थित श्रीतपगच्छ अमर जैनशाळाना ज्ञानभण्डारनी ४७१/३८७२ क्रमाङ्कित प्रतनी झेरोक्ष कोपी परथी आ रचना सम्पादित थई छे. आ प्रतनी नकल पू. उपाध्यायजी श्रीभुवनचन्द्रजी म. द्वारा प्राप्त थई छे, तेथी तेमनो तथा ज्ञानभण्डारना कार्यकर्ताओनो आभार मानुं छु. प्रस्तुत प्रति पञ्च-पाठी शैलीनी पडीमात्रामां, १६मा सैकामां लखायेल होय तेवू जणाय छे. रचनासंवत् के लेखनसंवत्नो उल्लेख नथी. अक्षरो सुन्दर छे तथा अवचूरि सह समग्र रचना अत्यन्त शुद्ध छे.