Book Title: Anusandhan 2012 07 SrNo 59
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 99
________________ ९२ अनुसन्धान- ५९ श्वेताम्बरों के अग्रज अवश्य है, इसमें किसी प्रकार के मतभेद की सम्भावना नहीं है । पउमचरियं जैनों के सम्प्रदाय - भेद से पूर्व का हैं - ४५ पउमचरियं के सम्प्रदाय का निर्धारण करने हेतु यहाँ दो समस्याएँ विचारणीय हैं - प्रथम तो यह कि यदि पउमचरियं का रचनाकाल वीर नि.सं. ५३० है, जिसे अनेक आधारों पर अयथार्थ भी नहीं कहा जा सकता है, तो वे उत्तरभारत के सम्प्रदाय - विभाजन के पूर्व के आचार्य सिद्ध होगे । यदि हम महावीर का निर्वाण ई.पू. ४६७ मानते हैं तो इस ग्रन्थ का रचनाकाल ई. सन् ६४ और वि.सं. १२३ आता है । दूसरे शब्दों में पउमचरियं विक्रम की द्वितीय शताब्दी के पूर्वार्ध की रचना है । किन्तु विचारणीय यह है कि क्या वीर नि.सं. ५३० में नागिलकुल अस्तित्व में आ चुका था ? यदि हम कल्पसूत्र पट्टावली की दृष्टि से विचार करें तो आर्य वज्र के शिष्य आर्य वज्रसेन और उनके शिष्य आर्य नाग महावीर की पाट परम्परा के क्रमशः १३वें, १४वें एवं १५वें स्थान पर आते हैं । यदि आचार्यों का सामान्य काल ३० वर्ष मानें तो आर्य वज्रसेन और आर्य नाग का काल वीर नि. के ४२० वर्ष पश्चात् आता है, इस दृष्टि से वीर नि. के ५३०वें वर्ष में नाइलकुल का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है । यद्यपि पट्टावलिओं में वज्रस्वामी के समय का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है किन्तु निह्नवों के सम्बन्ध में जो कथायें हैं, उसमें आर्यरक्षित को आर्य भद्र और वज्र स्वामी का समकालीन बताया गया है और इस दृष्टि से वज्रस्वामी का समय वीर नि. ५८३ मान लिया गया है, किन्तु यह धारणा भ्रान्तिपूर्ण है । इस सम्बन्ध में विशेष उहापोह करके कल्याणविजयजी ने आर्य वज्रसेन की दीक्षा वीर नि.सं. ४८६ में निश्चित की है । यदि इसे हम सही मान ले तो वीर नि.सं. ५३० में नाइल कुल का अस्तित्व मानने में कोई बाधा नहीं आती है । पुनः यदि कोई आचार्य दीर्घजीवी हो तो अपनी शिष्य परम्परा में सामान्यतया वह चार-प -पाँच पीढ़ियाँ तो देख ही लेता है । वज्रसेन के शिष्य आर्य नाग, जिनके नाम पर नागेन्द्र कुल ही स्थापना हुई, अपने दादा गुरु आर्य वज्र के जीवनकाल में जीवित ४५. पट्टावली परागसंग्रह ( कल्याणविजयजी), पृ. २७ एवं १३८ - १३९

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